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तरबभावना
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अम्बार्थ (योग) हे योगों (भय) इस संसाररूपी वन में (यैः) जिन ( उच्चकैः) बड़े ( रौद्रः ) भयानक ( विचित्रैः ) नाना प्रकार के ( कर्म महारिभिः) कर्मरूपी तीव्र महा शत्रुओं के द्वारा ( चिरम् ) अनादि काल से (त्वम्) तूने (दुःसहम् ) असहनीय ( असुखं) दुःख को (अवापितः) पाया है (अयं न अयं न ) ऐसा कोई कष्ट बाकी रहा नहीं जो तूने न पाया हो । ( तान् ) उन कर्मरूपी शत्रुओं को (रत्नत्रय भावना सिलतथा ) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकतारूपी आत्मज्ञान की तलवार से ( निर्मूलतः ) जड़ मूल से ( न्यक्कृत्य ) नाश करके ( सिद्धिमहापुरे ) मोक्ष के महान नगर में जाकर ( अनघसुखं ) पाप रहित आनन्द से भरे हुए (निष्कंटक) तथा सर्वं बाधारहित (राज्यं ) राज्य को (निविंश)
प्राप्त कर ।
भावार्थ - यहाँ पर आचार्यने बताया है कि इस जीवके साथ में अनादिकाल से कर्मरूपी शत्रुओं का सम्बन्ध चला आता है । ये कर्म बड़े भयानक हैं व नाना प्रकार का कष्ट इस संसार वन में इस मोही जीव को दे रखा है, कभी निगोद में कभी नर्क में, कभी पृथ्वी आदि पर्याय में, कभी कीड़ों मकोड़ों में, कभी पशुपक्षियों में, कभी रोगी व दलिद्री मानवों में, कभी नीच देवों में जन्म करा - कराकर ऐसा कोई शारीरिक व मानसिक कष्ट बाकी नहीं रहा है जो न दिया हो। ये कर्मशत्रु बड़े निर्दयी हैं, जितना इनसे मोह किया जाता है व जितना इनका आदर किया जाता है उतना ही अधिक ये इस प्राणीको घोर दुःखों में पटक देते हैं, जबतक इनका नाश न होगा तबतक स्वाधीन आत्मीक स्वराज्य प्राप्त न होगा । इसलिए आचार्य कहते हैं कि श्रीजिनेन्द्र भगवान ने जिस अभेद रत्नत्रय को बनी हुई स्वानुभव रूपी खड़ग का पता बताया है उस खड़ग को एक मन होकर ग्रहण कर और