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________________ २१६ ] तस्वभावना उसीका बल पूर्वक अभ्यास कर। इसी तलवार से कर्मों का जड़ मूल से नाश हो जाता है। वे कर्म धीरे -२ सब भाग जाते हैं । वे इस यात्री को मोक्ष नगरके जाने में विघ्न करते थे सो हट जाते हैं और यह सुगमता से मोक्ष की अनुपम राजधानी में प्रवेश करके परमोच्च अनुपम आत्मोक आनन्द का निरंतर बेखटके भोग करता रहता है । स्वामी पद्मनंदि सद्द्बोध चंद्रोदय में कहते हैं कि ध्यानसे हो कर्मों का नाश होता है योगतो ही लभते विबंधनम् योगतोपि किल सुच्यते नरः । योग विषमं गुरोगरा बोध्यमेतदखिलं मुमुक्षुणा ||२६|| भावार्थ - योग को अशुद्ध रखने से कर्मों का बंध होता है तथा शुद्ध योग से अवश्य यह नायक कर्मो से छूट जाता है। यद्यपि ध्यानका मार्ग कठिन है तथापि जो मोक्षका चाहने वाला है उसको गुरु के वचनों से इस सर्व ध्यान के मार्ग को समझ लेना चाहिए । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द हे योगी हैं कर्म शत्रु दुर्णम नाना तरह रूप घर भववम में दुःसह जु कष्ट तुझको दीने बड़े हैं प्रबल ॥ रत्नत्रयमय खड्ग वेग गहकर निर्मूल उन नाश कर । जो frosch राज्य मोक्षपुरका पाने सुखी होकर ।। ८३ ।। उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जो कोई आत्मोति को लक्ष्य में लेकर तप करता है उसको अवश्य शुद्ध आत्माका लाभ होता है - मंदाक्रांता वृत्त यो बाह्यार्थे तपसि यतते माह्ममापद्यतेऽसी । यत्वात्मार्थे लघु सलमते पूतमात्मानमेव ॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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