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अर्थात् अवस्य बढ़ा लेते हैं ।
भावार्थ -- यहां पर आचार्यने बताया है कि इन्द्रियोंके भोगों को भोगकर सुख की इच्छा करना मूर्खता है। जैसे कोड़ो लोग जिनको खाज खजाने की इच्छा इसलिए होती है कि आज मिट जावे, सारे अंग को खुजाते हैं इससे उनकी खाज मिटती नहीं उल्टी बढ़ भाती है वैसे इंद्रियों के भोगों से जो तृप्ति चाहते हैं उनके कभी तृप्ति व संतोष नहीं होता है, उल्टी तृष्णाकी ज्वाला और बढ़ जाती है । इन्द्रियोंके भोगों में लिप्त होने से उस जन्म में सुख नहीं मिलता, इतना ही नहीं उससे बागामी जीवन को भी नष्ट करता है क्योंकि इन्द्रिय भोग योग्य पदार्थों की इच्छा करके मह प्रचुर धन प्राप्त करना चाहता है या अनेक विषयोंकी सामप्रोको इकट्ठा करना चाहता है जिससे बहुत अधिक हिंसामई आरम्भ करता है, असत्य बोलता है व कर है । इस कारण ती पापोंको बांध लेता है उस पाप के उदय से परलोक में महान् दुःख की योनियों में पड़ जाता है व वहां भी पाप के उदयसे दुःखी हो जाता है व आपत्ति संकटों में पड़ जाता है । खाज खुजाने वाले को खाज जैसे मिटने के स्थान में बढ़ जातो है तैसे इन्द्रियभोगों को भोगकर तृप्ति चाहने वालों की तृष्णा की आग और अधिक बढ़ जाती है। ऐसा समझकर जो सुख की इच्छा हो तो आत्मोक सुख की खोज करनी चाहिए और उस सुख के लिए अपने आत्मा का ध्यान ही उपाय है इसको ग्रहण करना चाहिए ।
तत्वभावना
यमितगति महाराज ने सुभाषितरत्नसंदोह में कहा है कि सच्चा सुख वीतरागी महात्माओं को ही मिलता है
यदि भवति सौख्यं बोतकामस्पृहाणां ।
न तदमरविमनां नापि चक्रेश्वराणामें ॥