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________________ तत्त्वभावना [१२६, जानकर अपने आत्मामै तिष्ठता है व आत्मानुभव करता है वही मोक्षमार्ग में चलने वाला है, वही आत्मानंदरूपी अमृत का भोग करता है, वही अहंत वही जगतका स्वामी व वही प्रभु व वही ईश्वर है। मल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो निज आतम स्वच्छ ज्ञानमयको मजसा परम प्रेम से। पाता निर्मलज्ञान और सुखको लहसा शिर्ष नेम से। जो सेता मिजतन अवेतन महा लहता न ज्ञानं कधी। वाता देवे जो कि पास निज हो नम फूल दे नहि कधी ।४५॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि लोग सुख की तो इच्छा करते हैं परन्तु उपाय उल्टा करते हैं। कांक्षन्तः सुखमात्मनोऽनवसितं हिंसा परैः कर्मभिः । बुखोद्रेकमपास्तसंगधिषणाः कुर्वन्ति धिक्कामिमः ।। बाधा किम विवर्धयन्ति विविधः कंडयनैः कुष्टिनः । सर्वांगावयबोपमनपरैः खजूंकषाकक्षिणः॥४६॥ अन्वयार्थ-(अनवसितं)निरन्तर (आत्मनः सुखं) अपने को सुख की(काँक्षन्तः)इच्छा करने वाले(अपास्तसंगधिषणा:)विवेक , बद्धि से रहित (कामिनः)कामी पुरुष|धिक )यह बड़े दुःख की बात है कि (हिंसापरैः कर्मभिः) हिंसामई क्रियाओं के द्वारा (दुःखोट्रेक) दुःखों के वेगको (कुर्वति) बढ़ा लेते हैं। जैसे (खर्जूकषाकाक्षिणाः) खुजाने की इच्छा करने वाले (कुष्टिन:) कोढ़ी लोग (विविधैः) नाना प्रकार (कंडूयनैः) खुजाने की वस्तुओं से (सर्वांगावयवोपमर्दनपरः) सारे अंग के भागों को मलने से (किं) किस (बाधां) कष्टको (न विवर्धयंति) नहीं बढ़ा लेते हैं ?
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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