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________________ तस्वभावना [ १३७ इसलिए जो अपना आत्मकल्याण चाहते हैं उन्हें अपने आत्मा का ध्यान ही करना उचित है। श्री पद्मनंदि मुनि सोधचन्द्रोदयमें कहते हैंबोधरूपमखिलरुपाधिभिः जितं किमपियत्तव नः । नाम्यवस्पमपि तत्त्वमीदृशम् मोक्षहेतुरितियोगनिश्चयः॥२५ हमारा आत्मतत्व ज्ञानरूप है, सर्व रागादि की उपाधि से रहित है। इसके सिवाय और कोई भी जरासा भो हमारा तत्व नहीं है। ऐसा जो ध्यान का निश्चय है वही मोक्ष का मार्ग है । असल में बात यही है कि मोक्ष अपना ही शुद्ध चैतन्यरूप है, जहां अपने आप को सर्व परभावोंसे भिन्न अनुभव किया वहीं मोक्ष का आनन्द आने लगता है। मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो आतम निज आत्म आप ध्याये परमाको दालता। सो निश्चय दुर्लभ अनुपम परम शुद्धारमा पावता॥ बनमें बांस समूह आप आपो घर्षण करें आपको। शटसे दुर्धर तेज धार अग्नी होवे करे तापको 1॥४६॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो शरीरके कार्य में मोही है वह आत्मकार्य नहीं कर सकता। व्यासक्तो निजफायकार्यकरणे यः सर्वक्षा जायते । महात्मा स कदाचनापि कुरुते नात्मीयकार्योयमं ।। . दुरिण नरेश्वरेण महति स्वार्थे हटायोजिते। भोतारमा न कथंचनापि.तनुते कार्य स्वकोयं जनः ॥५० अन्वयार्थ- (य:) जो कोई (सर्वदा) सदा निजकायकायंकरणे) अपने शरीर के कार्य के करने में (व्यासक्तः) लया हुआ (जायते) रहता है (स:) वह (मूढ़ात्मा)मूढ़ बुद्धि (कदाचनापि)
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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