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________________ तस्वभावना आत्मात्माममशेषबाझविकलं ज्यालोकयमात्मना। दुष्प्रापां परमात्मतामनुपमामापवते निश्चितम् ।। आत्मानं घनरूढकोषकचयः किं घर्षयन्नात्मना । वन्हिस्वं प्रतिपद्यते न तरसा दारतेजोमयम् !!! अन्वयार्थ -(आत्मा) आत्मा (आत्मानम्) अपने आत्माको (नशेषबाह्मविकलं) सर्व बाहरी पदार्थों से भिन्न(आत्मना)अपने आत्मा के द्वारा (व्यालोकयन्)अनुभव करता हुआ(निश्चितम्) निश्चय से (दुष्प्रापां) कठिनता से प्राप्त होने योग्य (अनुपमां). तथा उपमा रहित (परमात्मता) परमात्मा पद को (आपद्यते) प्राप्त कर लेता है (किं) क्या (धनरूढ़कोचकचय:) गाढ़ इटा हुआ बांसके वृक्षका समूह आत्मना)अपने में (आत्मानं) आपको (घर्षयन्) घिसते-२ (तरसा) शीघ्र ही (दुरितेजोमयं) न बुझाने योग्य तेजस्वी (वह्नित्व) अग्निपने को (न प्रतिपद्यते) नहीं प्राप्त हो जाता है। भावार्थ:-आचार्य कहते हैं कि आत्माको वार्मोके मेल से छुड़ाने का व इसके गुणों को प्रकाश कर इस परमात्मा पद में पहुंचाने का उपाय इस आत्माके पास ही है । यदि यह आत्मा सर्व पुद्गलादि द्रव्यों से सर्व कर्म बन्धनों से, सर्व रागादि भावों से भिन्न मैं शद्ध ज्ञाता दुष्टा आनन्दमयी. अविनाशी अमर्तीक एक द्रव्य ई ऐसा निश्चय करके अपने आपको अपने आप ही से विचार करे, विचारते-२ उसोमें लय हो आत्मानुभव करें तो अवश्य उसके कर्म वन्ध कट जावें और यह शुद्ध परमात्मा हो जावें । इसपर दृष्टांत देते हैं कि जसे वनमें बौसके वृक्ष के समूह स्वयं रगड़ते-२ अग्नि में बदल जाते हैं और ऐसो प्रचंडता को धारण करते हैं कि फिर कोई भी उसको बुझा नहीं सकता है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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