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हो और उस वन में आग लग रही हो तथा भागसे जल जावे इस भयसे शेर, हिरण, सर्प आदि पशु भागे जा रहे हैं. अग्नि बढ़ते २ उस वृक्ष पर भी आने वाली है जिस पर वह बैठा है तथापि वह ऐसा बेखबर है कि लागको बढ़ती हुई देखकर आप उससे बचने का प्रयत्न नहीं करता है, भागता नहीं है । यही दशा अज्ञानी और मिथ्यादृष्टी जीव की है, तात्पर्य कहने का यह है कि संसार में परपदार्थ सम्बन्धको क्षणभंगुर जानकर व शरीरको कालके सुख में बैठा हुआ मानकर हमको सदा ही अपने आत्मोद्धार के प्रयत्नों में दत्तचित्त रहना चाहिए। श्री शुभचन्द्र आचार्य ने शानार्णव में कहा है
शरीरं शीर्मते नाशा गलत्यायुर्न पापधीः ।
मोहः स्फुरति नः श्रान् ।।२३। मानार्थ - शरीर तो गलता जाता है परन्तु आशा नहीं गलती है, आयु तो कम होती जाती है परन्तु पाप की बुद्धी नहीं जाती है मोह तो बढ़ता जाता है परन्तु आत्मा का हित नहीं होता है । शरीरधारी प्राणियों का चरित्र देखो कैसा आश्चर्यकारी है । यह मोह का महात्म्य है जिससे अपने नावाको सामने देखकर भी बावला हो रहा है।
तखभावना
भूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
मूरख संपत् लीन होय रहता भावी नहीं देखता ।
अग्मी लगी ।
घन नाशक मरणावि संकट बड़े आते नहीं पेला || बुक्षावी मृग बाघ नागपूरित बनमाहिं बैठा बुक देखता वन जले नहं बुद्धि मागन लगी ॥४७ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि परमात्मा पद की प्राप्ति नात्मवान से ही होती है