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________________ १३४ ] तत्त्वभावना मानवों को नाश करने वाली (संपत्तिविध्वंसिनी) तथा लक्ष्मी आदि का वियोग करने वाली (दुरा) कठिनता से निवारने योग्य (विपदं) विपदाको (उपयतीं) आते हुए (न पश्यति) नहीं देखता है जैसा(वृक्षगतः)वृक्ष के ऊपर बैठा हुआ कोई मानव या पक्षी (वृक्षव्याघ्रतरपनगमगव्याधादिभिः) वृक्ष, बाघ, तरस, सर्प, मृग व शिकारी आदि से (संकुलं) भरे हुए (कक्ष) बन को (प्रप्लोषयन्ती )जलाने वाली (हुताशनशिखां) अग्नि की सिखाके (इव) समान नहीं देखता है। अर्थात जैसे वह मानव आग जलती तो देखता है परन्तु उठके भागता नहीं है ऐसा यह धनोन्मत्त पुरुष है। भावार्थ- यहाँ पर आचार्य ने बताया है कि यह संसार रूपी वन महा भयानक है जिसमें मरण की आग जल रही है जो इस वनमें रहते हैं वे मरते रहते हैं । जब प्राणोको मरण आ जाता है उस समय सर्व संपत्ति धन दौलत स्त्री पुत्र मकान राज्य आदि छोड़ जाना पड़ता है। इस मरण की भापत्तिको कोई टाल नहीं सकता है । अज्ञानी लोग यह देखा करते हैं कि आज यह मरा कल वह भरा था, आज यह सब छोड़के चल दिया कल वह छोड़ के गया था । संसार में मरण किसोको छोड़ता नहीं, न बालकको न वृद्ध को न बुद्धिशाली को न मुर्ख को न राजा को न रंकको न इन्द्रको न धणेन्द्रको न चक्रवर्तीको ग तीर्थंकरको, तो भी लोग अपना ध्यान नहीं करते । जो मूर्स धनके मदमें उन्मत है, संपदा में लिप्त है वह ऐसा अन्धा हो जाता है कि विषय भोगों को भोगता ही रहता है और मरण पाने वाला है इस बातको अपने लिए नहीं विधारता है, वह मूर्ख अज्ञानसे मरकर संसारमें कष्ट पाता है। यहां पर आचार्यमै उस मुखें मानव या पनीका दृष्टांत दिमा है जो किसी भयानक वनक भीतर एक पक्ष पर कछारमा
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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