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________________ ६२ ] तय करते को बने हैं। एक बुद्धिभाग प्राणी जैनधर्म से प्रेम करना उचित है, यह आत्मस्वातंत्र्य का पाठ सिखाता है और अहिंसा के अद्भुत भाव को जगाता है। यह जगत के प्राणियों के दुःख मिटाने को दयाभाव जगाता है। यह अन्याय पथ से बिलकुल हटा देता है। यह जीवको समदर्शी व बीतरागी बना देता है। यह सांसारिक सुख-दुःखोंके भीतर भी समताभाव रखने को युक्ति बता देता है । यह अपने निश्चय दृष्टिरूपी शस्त्र से राग-द्वेष के कुमावों को विध्वंश कर डालता है । यह निरंतर ज्ञानरसको पिलाता है, तृष्णाकीं दाहको शमन कराता है और जीवको निर्भय बनाकर साहसी और निरा कुल कर देता है। इस जैनधर्मकी महिमा अपार है, वचन अगोचर है । तत्त्वभावना श्री पद्मनंदि मुनि धर्मोदेशामृत में इस रत्नत्रय धर्म की महिमा इस तरह गाते हैं भय भुजंग नागदमनी दुःखमहादावशमनजलवृष्टिः । मुक्तिसुखामृतसरसी जयति दुर्गाावित्रयो सम्यक् ॥ ८ ॥ भावार्थ - यह सम्यक दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रयमयी जैनधर्म संसाररूपी सर्प के हटाने को नाम दमनी औषधि है, दुःखोंकी महान आग को बुझानेके लिए जलकी वृष्टि है तथा मोक्षसुख रूपी अमृतका सरोवर है सो जयवन्त रहो । मूल श्लोकानुसार मालिनि छन्द जनम मरण ब्याधि आधि भय शोक आदि । सहज नशत जासे जंन शासन अनादी ॥ अन्धेरा । मेरा ॥ १६ ॥ भानु जिम नाश करता दुःखकर जग जनदृष्टि विराधक तेज नक्षत्र
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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