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________________ तत्वभावना [६१ मावार्थ- इस श्लोक में आचार्य ने जैनधमंकी यथार्थ महिमा बताई है और उसको उपमा सूर्य से दी है। सूर्य के सामने जैसे और नक्षत्रों का तेज छिप जाता है वैसे जैनधर्मके स्थाद्वाद नयगभित अनेकांत उपदेश के सामने एकांत तत्व को पोखने वाले मतोंका तेज हो जाती है। जैसे सूर्य के अन से पहली रात्रिका अंधकार जिसके कारण के आंखोंके रहते हुए भी प्राणी देख नहीं सकते हैं व जो देखनेके सुखके रोकनेवाला है सो एकदम दूर हो जाता है । उसी तरह जिनशासनके सेवन से जन्ममरणादि दुःखोंसे परिपूर्ण संसारका ही नाश हो जाता है, संसार का कारण रागद्वेष मोह है । जिनशासन वीतराग विज्ञान है । अथवा बभेद रत्नत्रयमई है, अथवा शुद्ध आत्मा का ध्यान या शुद्धात्मानुभव है । जिस समय यह स्वानुभब जगता है तुर्त मनका क्लेश व शोकादि भावों को हटा देता है। इष्ट वियोग व अनिष्ट संयोग की चिन्ता को मिटा देता है । ध्याता को निर्भय बना देता है। स्वानुभव से ही पापों का नाश होता है । यह स्वानुभव ही उच्च श्रेणी पर पहुंचा हुआ शुक्लध्यान कहलाता है जिसके प्रतापसे घातिया कोका नाश होकर यह जीव अहंत हो जाता है, फिर शेष चार अघातिया कर्मोका भी क्षयकर सिद्ध परमात्मा हो जाता है। अब इसका न जन्म होता है न मरण होता है। यह जीव सिद्धपदमें निश्चलता से अनंतकाल स्थित रहता है और अपने आत्मीक आनंदका विलास करता है । जिस जैनधर्म के सेवनसे यहां भी सुख होता है और परलोकमें भी सुख होता है उसकी ओर श्रद्धाभाव रखकर उसका माचरण करना निरंतर उचित है, जो इस मानवजन्मको पाकर जिनशासनरूपी जहाज पर चढ़ जाते हैं वे अवश्य निःशंक होकर संसार-समुद्रको
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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