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________________ ६. ] तत्त्वभावना पर चलने से मुझे इसी शरीर' द्वारा अनुपम और अविनाशी आनन्द से भरिपूर मोक्षलक्ष्मी शीघ्र ही प्राप्त हो जावे। इसलिए इस नरतन से धर्म पालकर स्वात्म लाम कर लेना ही उचित है। मूलश्लोकानुसार छन्द गीता यदि अशुचि शरीरं साधता सौख्यकारी। दिव शिवपद अनुपम हानि क्या तब विचारो॥ निदित Fनुवन्तु होलो रात साचे! बुधजन तब यामें लाभ ही लाभ भावे ||१|| उत्थानिका - आगे कहते हैं कि बद्धिमानों को उचित है कि सर्व संकटों को दूर करने वाले जनधर्म का पालन करें। मत्यत्पत्तिवियोगसंगमभयच्याध्याधिशोकावयः । सुर्थते जिनशासनेन सहसा संसारविच्छेदिना ।। सूर्येणेव समस्तलोचनपथप्रध्वंसबखोदया ! हन्यते तिमिरोस्करा: सुखहरा नक्षत्रविज्ञपिणा ॥६॥ अन्वयार्थ--(नक्षत्रविक्षेपिणा सूर्येणेव जैसे नक्षत्रोंको छिपाने वाले सूर्य के द्वारा (समस्तलोचनपथप्रध्वंसबद्धोदयाः) सबकी आंखों में देखने की शक्ति को रोकने वाले (सुखहराः) और सुख को हरने वाले (तिमिरोत्करा:) अधिकार के समूह (हन्यते) नाशकर दिए जाते हैं बसेही (संसारविच्छेदिना) संसारको नाशकरने वाले (जिनशासनेन ) जिनशासन या जैनधर्म के द्वारा (मृत्यूत्पत्तिवियोगसंगमभयव्याध्याधिषोकादयः) मरण, जन्म, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, भय, रोग, मनका क्लेश, शोक बादि (सहसा) इकदम (सूचंते) दूरकर दिए जाते हैं।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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