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________________ [ ६३ उत्थानिका --- आगे कहते हैं कि जिसका लक्ष्य शुद्धात्मा की तरफ है वही शुद्धात्मभाव को पाता है तस्वभावना मन्दाक्रांता छन्द चित्रारंभप्रचयनपरा सर्वदा लोकयात्रा । यस्य स्थान्ते स्फुरदि न सुनेर्मुष्णतो लोकयात्राम् । कृत्यात्मानं स्थिरतरमसावात्मतत्व प्रचारे । क्षिप्त्वाशेषं कलिलनिचयं ब्रह्मस प्रयाति ॥२०॥ अम्वयार्थ - (यस्य) जिस ( मुनेः ) सुनि (स्वान्ते ) अंतःकरण में (चित्रारंभचयनपरा ) नाना प्रकार हिंसादि आरंभ में लगने बाली (लोकयात्राम मुष्णती) व मोक्षकी यात्राको रोकने वाली ( लोकयात्रा ) लौकिक प्रवृत्ति ( सर्वदा) कभी ही (न स्फुरति ) नहीं प्रकट होती है ( असौ ) वही साधु (आत्मतत्त्व प्रचारे) आत्मीकतत्व के मनन में (स्थिरतरं ) अतिदृढ़ (आत्मानं ) अपने आत्मा को ( कृत्वा) करके (अशेषं ) सर्व ( कलिलनिचयं ) कर्मों के मैल के ढेरको (क्षिप्त्या) दूर फेंककर ( ब्रह्मसय ) ब्रह्मलोक या सिद्धलोक को ( प्रधाति) चला जाता है । भावार्थ - यहाँ आचार्य ने बताया है कि सिद्धि उसीकी हो सकती है जो उसके लिए भले प्रकार पुरुषार्थं करता है। मुनिगण ही मोक्षपद पानेके अधिकारी हैं। गृहस्थी आरम्भ परिग्रह के मलसे मलीन रहते हुए गजस्नानवत् आचरण करते हैं, यदि उन्होंने कुछ ध्यानादि करके पाप धोया भी तो दूसरे समय आरंभों में उलझकर फिर पापोंका बंध कर लिया, इसलिए बेही सच्चे साधु मोक्षको पा सकते हैं जिनके अंतरंग में संसार के सब प्रकारके आरंभ से ऐसी उदासीनता हो गई है कि वे कभी किसी
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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