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________________ तत्त्वभावना असि मसि कृषि मादि कर्मका व रसोई पानी बनवाने आदिका रंचमात्र भी विचार नहीं करते हैं । वे जानते हैं कि ये संसारके व्यवहार राग-द्वेषको बढ़ानेवाले, चितामें फंसानेवाले और स्वा. नुभव रूप मोक्ष की यात्रा मार्ग से हटाने वाले हैं, इसलिए वे राज्यपाट गृहनगर आदिको छोड़कर अत्यंत दूर एकांत निर्जन वनों में निवास करते हैं, अपने मनमें रात-दिन मुक्ती सुन्दरीके मिलने की उत्कंठामें लगे रहते हैं, वे साधुजन अपने ही आत्माके निश्चय स्वरूप का विचार करते हैं और उसी आत्मानुभव में थिरता पाने का उद्यम करते हैं । जितना-२ आत्मानुभव बढ़ता जाता है और वीतरागताकी वृद्धि होती जाती है, उतना उतना ही कोका अधिक क्षय होता जाता है और बंधका अभाव होता जाता है । आत्मसमाधिरूपी नौकापर चढ़े हुए साधु आत्मानन्द को पाते हुए बड़े सुखसे इस संसारको विशाल यात्राको उल्लंघन करके मोक्षमें पहुंच जाते हैं। प्रयोजन कहने का यह कि जो ब्रह्मानन्दके स्वाद के चाहनेवाले हैं उनकी सर्व आरंभ परिग्रह से विरक्त होकर साध के चारित्रको पालते हुए आत्मध्यानका अभ्यास बढ़ाना जरूरी है। जिन साधुओंकी दृष्टि सदा आत्मानुभवकी तरफ लगी रहती है वे ही साधु शीघ्र मुक्तिको पहुंच जाते हैं। जैसा श्री पद्मनंदि मुनि ने सोधचंद्रोदय में कहा है कि आत्मध्यान ही मुख्य हैआत्मबोधशुचितोर्ममभुतम् स्नानमन कुचतोत्तमं बुधाः । यत्र यात्मपरतीर्थकोटिमिः भाषयस्यपि मलं तवंतरम् ।।२०
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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