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________________ ३३२ 1 आत्मध्यान का उपाय हो प्रमाद आधीन कदाचित् अनाचार कर डाला। शुद्ध करणको इन दोषोंके प्रतिक्रम कभं सम्हाला ।।८। क्षति मनःशुद्विविधरतिक्रम व्यतिक्रमं शोलतेविलंघनम् । गोभिनारं विष पनि वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ॥६॥ मन विशुद्धिमें हानि करे जो वह विकार अतिक्रम है । गोल स्वभाव सलंघनको मति सो जाना व्यतिक्रम है ।। विषयों में वर्तन हो जाना अतीचार नहिं कम है। स्वच्छंदी बनकर प्रवृत्ति सब अनाचार इकदम है ॥४॥ पवर्थमावापदबाक्यहीनं मया प्रमावाद्यपि फिधिनोक्तम् । तन्मे शामिस्वा विवधातु देवो सरस्वती केवलबोधलग्धिम् ॥१०॥ मात्रा पद अस वाक्यहीन या अर्थहीन वचनोंको। कर प्रमाद बोला हो मैंने दोष सहित वचनोंको ।। क्षम्य ! क्षम्य ! जिनवाणि सरस्वति ! शोधो मम वचनोंको। कृपा करो हे मात ! दोजिए पूर्ण ज्ञान रतनों को ॥१०॥ वोधिः समाधिः परिणामशुधिः, ___ स्वात्मोपलम्निः शिवसौख्यसिविः। चिन्तामणि चिन्तितवस्तुबाने स्वा वंद्यमानस्य ममास्तु वेपि ॥११॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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