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________________ तत्त्वभावना .............[ २५६. अम्बयार्थ-(पुराकृतकर्मणः) पिछले बांधे हुए कर्मों के उदय से (भविनः) इस संसारी प्राणीके (सौख्यं दुःखं) सुख तथा दुःख होता है। तब (मे हृदये) मेरे हृदय में (कधम्) किस लिए (कदाचन) कभी भो (राग द्वेषः) राग या द्वेष (स्फुरति) प्रगट होगा (इत्थं) ऐसा (विज्ञाय) समझकर (यः) जो कोई (मनसि) मनके भीतर (तयोः) उन दोनों सुख तथा दुःख में (समता) समभाव को (दधाति) धारण करता है (सधीः) वह बुद्धिमान (पूर्व पापं) पहले के पापको (क्षपयति) क्षय करता है (नूतनम्) नए पापको (न चिनोति) नहीं बांधता है।। भावार्थ-यहां पर आचार्यने बताया है कि ज्ञानोको उचित है कि कर्मों के उदयमें समताभाव कोधारण करें। शानो सम्यम्दृष्टी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि पूर्वकृत पुण्यके उदय से सुख तथा पाप के उदय से दुःख होता है। तथा कमों का उदय सदाकाल एकसा नहीं रहता है, वह अवश्य अनित्य है। विनाशीक वस्तु में राग व द्वेष करना वृथा है। समताभाव से सूख तथा दुःखको भोग लेना चाहिए, जो कोई सुख को अवस्था होने पर उन्मत्त तथा दुःखोंके होने पर क्लेशित नहीं होते उनके पूर्व के बाँधे कर्मों की तो निर्जरा हो जाती है तथा नवीन कर्म नहीं बंधता है। कर्मों को निर्जरा होने का बड़ा भारी उपाय समभाव सहित जोवन विताना है । सम्यग्दृष्टी ज्ञानी की रुचि अपने आत्मा के स्वभाव पर रहती है । वह आत्मा के आनन्द का ही प्रेमी होता है । उसका अपनापना अनन्त ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमई सम्पदा से हो रहता है । वह मानव सर्व जगत के पदार्थों से उदास है। यही कारण है तो ज्ञानी मोक्षमार्गो है जब कि अज्ञानी संसार में प्रमण करने वाला है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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