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________________ २६०] तत्त्वभावना अमित महाराज मामित ग्नसंटोनमें ज्ञानकी महिमा बताते हैं। शानाद्धितं वेत्ति ततः प्रवृत्ती रत्नत्रय संचितकर्ममोक्षः । ततस्ततः सौख्यभबाधमुच्चस्तेनान यत्रं विविधाति दक्षः ।।१८४ भावार्थ--यह जीव झान के ही प्रताप से अपने हित को समझता है तब उसकी प्रवृत्ति रत्नत्रय धर्म में होती है । धर्म के सेवन से पूर्व बाँधे कर्मों की निर्जरा हो जाती है तब बाधारहित सुख प्राप्त होता है इसलिए चतुर पुरुष सम्यग्ज्ञान के सदा यत्न करते रहते हैं। तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए हित कर्ता को उचित है कि श्री जिनेन्द्र कथित ग्रन्थों का पठन मनन, सदा करते रहें। मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द पूरव कृत कर्मानुसार जियको सुख दुःख होता रहे। मेरे मन में राग द्वेष क्या हो शानी विवेकी रहे। ऐसा मान ज साम्य भाव रखते निज तत्वको नानते। काटे पूरब पाप बुद्ध युत ते नूतन नहीं बांधते ॥१०२ जत्थानिका-आगे कहते हैं कि कषाय सहित तप कर्मों को निर्जरा न करके कर्मों का बांधने वाला है क्षपयितुमनाः कर्मनिष्टं तपोभिनिदितः। नयात रमसा डि नीचः कषायपरायणः॥ बुधजनमः कि भेषज्यनिवितुमुञ्चतः। प्रथयति गदं तं नापण्यात्कवार्षितविग्रहम् ॥१०॥ अन्वयार्थ-(आनन्दितैः) उत्तम (तपोभिः) तपों के द्वारा (अनिष्टं कर्म) अहितकारी कर्मको (क्षपयितु मनाः) नाश करने की मनसा रखता हुआ (नोच:) नीच मनुष्य (कषायपरायगः)
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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