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तत्वंभावना
समताभाव का स्वरूप दिखलाया है । यह सच्ची तत्वभावना का एक प्रकार है। __ वास्तव में समताभाव लाने के लिए ऐसी ही भावना कार्यकारी है । श्री पद्मनंदि मुनि निरचय पंचाशत में कहते हैं
शुद्धाच्छुद्धमशुद्धं ध्यायन्माप्नोस्यशुद्धमेवस्वम् । · जनयति हेम्नो हम लोहाल्लोहं नरः कटकम् ।।१८।।
भावार्थ---जो कोई अपने आत्मा को शुद्ध स्वरूपमय ध्याता है वह शुद्ध आत्मा को पाता है तथा जो अशुद्ध रूप अपने को ध्याता है बह अशुद्ध ही आत्मा को पाता है जैसे कोई मनुष्य सोने से सोने का कड़ा व लोहे से लोहे का कड़ा बना लेता है।
__ मूल श्लोकानुसार सन्द गीता द्वेषकारो शांतिधारी बंधु में अर शत्रु में। मुखंजन वा पंडितों में शुभ नगर वा बनों में ।। सम्पत्ति वा विपति में, या जन्ममें वा मरणमें। हे देव ! मेरा काल बोते भाव समता धरण में ॥६॥ सुख में वा दुःख में वा क्लेशकर अरि मित्र में। घरमें अरणमें कनक ढेरी और लोष्ट पाषाणमें ।। प्रिय वस्तु वा अप्रिय रहो ममदिवस हों समबुद्धिमें।
हे जिन पते ! तब निर्मलं च सदा धारूं हृदय में ||७|| उत्थानिका-आगे कहते हैं कि उत्तम कार्य करनेवाला ऊंची गतिको व नीच कार्य करनेवाला नीची गतिको जाता है--
(शार्दूलविक्रीडत छन्द) ये कार्य रचयंति नियमधमास्ते यांति नियां गतिम् । ये बंधे रचयंति बन्धमतयस्ते याति वंद्यां पुनः॥