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________________ सत्व भावना [ २०१ यथा च जायते चेतः सम्यक्शुद्धि सुनिर्मलाम् । तथा ज्ञानविदा कार्य प्रयत्नेनापि भूरिया || १६१ ॥ भावार्थ- जो अपने आत्मा कामको छोड़कर शरीरादि पर के कार्य में लीन है वह ममता सहित चित्त वाला होकर अपने आत्महितका नाश कर डालता है। अपने आत्माका हित सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान व सम्यकचारित्रका साधन तथा तपका भले प्रकार रक्षण है ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है । जिस तरह यह मन भले प्रकार ऊँची शुद्धताको प्राप्त कर ले उसी तरह जानियों को बहुत प्रयत्न करके उद्यम करना चाहिए। मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो करता शुचि भाव प्राप्त करता शिव स्वर्ग लक्ष्मी सही । जो करता मलभाव सोहि लहता नरकादि सुखकर महो ॥ सज्जन निर्मल भाव नित्य ग्रहसे मल भावको त्यागते । बुधजन हितकर कार्य छोड़ कबहूं दुखकर नहीं साधते ॥७७ उत्थानिका – आगे इस परिणाम की महिमा को और भी बताते हैं नरकगतिमशुद्धः सुंदर स्वर्गवासं । शिasanनषद्यं याति शुद्धकर्मा । स्फुटमिह परिणामश्चेतनः पोष्यमाणंरिति शिवपदकास्ते विधेया विशुद्धाः ॥७६॥ अन्वयार्थ - ( अशुद्ध : ) अशुद्ध ( परिणामः ) भावों से (नरकगति) नरकगति को (सुंदर) शुभ भावों से ( स्वर्गवासं ) स्वर्ग निवासको तथा (चेतनः पोष्यमाणैः शुद्धः ) चेतन को पुष्ट करने बाले शुद्ध भावों से ( अकर्मा) यह जीव कर्म रहित होकर
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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