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________________ तत्त्वभावना [२७३ कर लेना चाहिए। अमितिगति महाराज सभाषित रत्नसन्दोहमें कहते हैंदेवाराधनमहबनध्यानहन्यांजप.... स्थानत्यागधराप्रवेशागमनत्रज्या द्विजार्चाविमिः॥ अत्युमेण यमेश्वरेण तनुमानंगीकृतो भक्षितुं । व्याने व बुभुक्षितेन गहने नो शक्यते रक्षितुम् ॥२६७ भावार्थ-जैसे बाघसे पकड़ा हुआ प्राणी जंगल में मरण से बच नहीं सकता। इसी तरह जब इस प्राणीको भयानक यमराज भक्षण करता है तब देवपूजा, मंत्र, तंत्र, होम, ध्यान, ग्रहपूजा, जप, स्थानसे चले जाना, धरती में प्रवेश करना, विहारी साधु हो जाना, ब्राह्मणोंकी सेवा आदि कोई बचा नहीं सकते। मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द असुर सुर पतीकी जो विभूति छुड़ाये। मानवको हरने खेव नहि काल लावे॥ पर्वतकी चोटी जो पवन डगमगाये। गहशिखरध्वजाको खेद बिन सो माये ॥१०॥ उत्पानिका-आगे जगतके पदार्थोकी चंचलताको दिखाते हैं दूतविलंबित छन्द सकललोकमनोहरणकामाः करणयौवनजीवितसंपदः । कमलपापमोलवचंचलाः किमपि न स्थिरमस्ति जगतये ||१०९ अन्वयार्ष-(सकललोकमनोहरणक्षमा:) सर्व लोगों के मन को हरण करनेमें समर्थ (करणयौवन जीवितसम्पदः) इंद्रियों की युवानी व जीवन व सम्पत्तियें (कमलपत्रपयोलबचंचलाः कमल के पत्ते पर पड़े हुए पानीकी बूंदकी तरह चंचल है (जगत्रये) तीनोंही लोकमें (किमपि स्थिरं न अस्ति) कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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