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________________ १३२ ] तत्त्वभावना अपने आत्माका वैसे है । वह अपने आपको (सदा सदा (दःसहजन्मगुप्तिभवने) न सहने योग्य संसारके भयानक जेलखाने में (क्षिप्तवा) पटक कर (पातयति) अधोगतिमें पहुंचाता रहता है (इति) ऐसा(आलोच्य) विचार करके (जन्मचकितैः) संसार के जन्मसे भय रखने वाले (कोविदः)बुद्धिमानोंको(तत्र) इस संसार में (सः स्थिरः कार्यः) वही स्थिर कार्य करना चाहिए अर्थात् अपने आत्मामें स्थिर होने का उपाय करना चाहिए । भावार्थ-यहां आचार्य ने बताया है कि यह आत्मा अपने मात्मा का घातक तथा शत्र है, जो संसार के अनेक व्यापारों में तो उलझता है परन्तु अपने आत्मा के ध्यान को कभी नहीं आचरण करता है क्योंकि वह जीव नाना प्रकार पाप कर्मों को बांधकर अपने आत्मा को नरकनिगोद पशुगति आदि के महान कष्टों में डाल देता है। फिर उसको संसार में सुखी होने का मार्ग कठिनता से मिलता है और वह मोक्षमार्ग से दूर होता जाता है परन्तु जो कोई बुद्धिमान और सब शरीर सम्बन्धी व्यापारों को त्यागकर निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को भले प्रकार पालता हुआ अपने आत्मा के ध्यान में लयता पाता है वह अपने आत्मा का मित्र है। क्योंकि ध्यान के बल से वह कमों का नाश करता है आत्मा में सुख-शांति तथा बल को बढ़ाता है और मोक्ष मार्ग को तय करता जाता है, ऐसा जानकर जो कुछ भी बुद्धि रखते हैं उनका कर्तव्य है कि रागद्वेष भूलकर सर्व ही व्यापारों को छोड़कर ऐसा उपाय करें जिससे अपने आत्मा में स्थिरता पाये और फिर मुक्त हो जाये। बुद्धिमानों को आत्मघाती होना बड़ा भारी पाप है। जो अपने आत्माको रक्षा करता है वही सच्चा आत्मा का मित्र है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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