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तत्वभावना
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हूँ परन्तु वह अपने भीतर जानते हैं कि यह मुझे व्यवहार के चलाने के लिए व्यवहार नय से ऐसा कहना पड़ता है परन्तु मैं इन स्वरूप असल में नहीं हूं। मैं तो वास्तव में सिद्ध भगवान के समान ज्ञाता दृष्टा आनंदमई पदार्थ हूँ। ऐसा श्रद्धान रखता हुआ ज्ञानी जीव सर्व ही व्यवहारिक कल्पना जालको जो पाप बंधकारक हैं छोड़ कर एक अपने आत्माको ही निश्चल मन करके ध्याता है । आत्माके ध्यानसे ही वीतरागता की अग्नि जलती है जोकमा इन्धनमोहलाती है कौर गारमाको हार्गो समान शुद्ध करती चली जाती है । इसलिए ज्ञानीको आश्मध्यान ही करना योग्य है जिससे मुक्ति की लक्ष्मी स्वयं आकर मिल जाये और संसारके चक्र का फिरन मिट जाये। एकत्वाशीति में श्री षद्मनंदि मुनि कहते हैंशुद्ध यथेष चैतन्यं तदेवाहं न संशयः।
या कल्पनया येतद्धीनमानन्दमंदिरम् ॥५२॥ भावार्थ-"जो कोई शुद्ध चैतन्यमयी पदार्थ हैं वही मैं हूं इसमें कोई संशय नहीं हैं ।" ये वचनरूप व विचाररूप कल्पना भी जिसमें नहीं है ऐसा मैं एक आनन्द का घर हूँ।
अहं चैतन्यमेवक नान्यत्किमपि जातुषित् । सं घोपि न केनापि दुइ पक्षो ममेदृशः ।।५४॥ भावार्थ-मैं एक चैतन्यमयी हूँ और कुछ अन्य रूप कभी नहीं होता हूँ। मेरा किसी भी पदार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है यह मेरा पक्ष परम मजबूत ऐसा ही है।