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तस्वभावना
जिन महात्माओंने धन धान्यसे भरे हुए घरको छोड़कर जंगलको ही अपना घर बना लिया है, तेलबत्ती से बने हुए दीपकको छोड़कर चंद्रमाहीसे दीपकका कामलेना शुरू किया है, नानाप्रकार मनोज्ञ मिठाई पकवान भोजन छोड़कर भिक्षा द्वारा प्राप्त नीरस सरस भोजनको लेना ही अपना कर्तव्य समझा है, जिन्होंने पलंग गद्दे आदि मुलायम बिछोनों को छोड़कर भूमि को ही अपनी निरारंभी व निराकुल शय्या माना है, जिन महान पुरुषोंने सर्व प्रकार के रुई आदि के वस्त्रों को त्यागकर दशदिशाओं को हो अपना स्वाभाविक वस्त्र जाना है ऐसे वस्त्र त्यागी व परिग्रह रहित निर्जन बनवासी साधु ही सदा सन्तोष रूपी अमृतसे तप्त रहते हैं। वे साताकारी सामाग्री के संयोग में हर्ष नहीं मानते हैं व असाताकारी पदार्थों के सम्बन्ध में शोक नहीं करते हैं, निरंतर आत्मानंदरूपी अमृतको पीते हुए तप्त रहते हैं । वे ही साधु अपने वीतराग भाव से कर्माको नाश करके अविनाशी मोक्षपद को पालते हैं। जहां कोई न चिता है न शरीर है, न कोई व्याधि है न कोई आकुलता है, न कुछ काम करना है । जहाँ निरंतर आत्मानंदका विलास रहता है ऐसे अपूर्व पदको वे नहीं पा सकते है जो कायर हैं व दीन हैं। जो घरसे ममता नहीं छोड़ सकते, जो रसीले भोजन पानके करने वाले हैं। जो मुलायम गद्दों पर सोते है व जो अनेक प्रकार वस्त्रों से अपने शरीर को ढकते हैं, तथा जो असाता पड़ने पर क्रोधी व साता मिलनेपर राजी हो जाते ऐसे नाम मात्रके साधु कभी भी मुक्तिपद को नहीं पासकते हैं।
श्री पद्मनंदि मुनि यत्याचार धर्म में लिखते है