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तत्त्वभावना
भावार्य-यहां आचार्य अज्ञानी जीव की बेष्टा बताते हैं कि यह जीव स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई बादिकों को अपना मान लेता है। जब उममे किसीका मरण हो जाता है तब उनके मिलने के लिए शोक किया करता है । वे कभी फिर उसो शरीरमें माकर मिल नहीं सकते, क्योंकि उनमें से हरएक का जीव अपने-अपने शुभ या अशुभ भावोंके अनुसार जैसा आयु कर्म बांध चुका था उस ही गति में चला गया है । किसीने देवआयु बांधी थी तो वह देव हो गया, किसीने नरक आयु बांधी थो वह नारकी हो गया, किसीने पशु बायु बांधी थी सो पशु हो गया, किसीने मनुष्य बायु बांधी थी सो फिर कोई अन्य प्रकार का मनुष्य हो गया। उनके धीरों को उनके कूटम्बी अपने सामने दग्ध हो कर चुके हैं। इस लिए अपने मरे हुए पुवादि का सोच करना कि वे किसी तरह मिल जावें, महान बावलापना है । यह ऐसा ही असंभव है जैसे उन परमाणुओंको फिर इकट्ठा करना असम्भव है जो कल्पकाल की पवन की प्रेरणासे दस दिशाओं में उड़ गए हैं। किसी मानव को शक्ति नहीं है कि उनको संचय कर सके । इसी तरह किसी मानव की शक्ति नहीं है कि मरे हुओंको जिला सके व उनसे मिल सके । इससे हमें व्यर्थ की चिता छोड़कर अपने निज कार्य में तत्पर रहना चाहिए।
श्री पद्मनंदि स्वामी ने अनित्य पंचाशत् में बहुत अच्छा
एकद्रुमे निशि वसति यथा शकुंताः । प्रातः प्रयोति सहसा सकलासु विक्षु ॥ स्थित्वाकुले बत तथाप्यकुलानि मृत्वा । लोकाः अति विदुषा खलु शोच्यते॥१६॥