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________________ ' [ २८१ अन्वयार्थ - ( अंगिनः ) यह शरीरधारी प्राणो ( अंगकुटु म्बकहेतवे ) अपने शरीर तथा अपने कुटुम्ब के ( बिविध संग्रह - कल्मषं) नाना प्रकार के पाप के संचयको (विदधते) करते रहते हैं (पुनः) परन्तु ( एकका) अकेले ही (नरकवासं) नरक के स्थान में (उपेत्य ) जाकरके ( सुदुस्सह) अति दुःसह (असुखं ) दुःख को ( अनुभवंति ) भोगते हैं । तत्त्वभावना भावार्थ - ये संसारी गृहस्थ अपने स्त्रीपुजा के मोह में ऐसे अन्धे हो जाते हैं कि उनके मोह में और अपने शरीर के मोह में पड़कर नाना प्रकार के विषयों को भोगने के अभिप्राय से व धन के संत्रय करने के लिए नीतिको उलंघकर व बहुत से परिग्रह को संचय करते हुए बहुत सा पाप बांध लेते हैं। जिस कुटुम्ब के लिए मोही जीव पाप का संचय करते हैं वह कुटुम्ब उस पाप के फल के भोगने में सहकारी नहीं होता है। यह जीव अकेला ही उस पाप के फलसे नर्क में जाता है और वहाँ असहनीय दुख को बहुत काल पर्यन्त भोगता रहता है। वास्तव में हर एक जीव अपने अपने भावों का जिम्मेदार है। अपने भावों से जो पाप बघिता है उसका फल उसी ही को स्वयं भोगना पड़ता है ऐसा 'समझकर ज्ञानवानों को उचित है कि कुटुम्ब के मोह में पड़कर उसके लिए अन्याय व अनर्थं न करे, अपनेको नीति व धर्म के मार्ग से विचलित न करें, स्वात्महित करते हुए परहित करना उचित है। स्वामी अमितगतिजी सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैंरे पापिष्ठातिकुष्टव्यसनगतमते निद्यक में प्रशक्त। न्यायान्यानयामिश प्रतिहतकरुण व्यस्तसन्मार्गबु ||
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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