________________
२८० ]
कोई पशु ऐसे हैं कि जिनको जनने वाली माता ही उनका भक्षण कर लेती है जहां माता ही बच्चे को खा लेवे वहां और कौन बचाने वाला है ?
तत्त्वभावना
ऐसा जानकर मानव को आत्मानुभव के भीतर शरण लेनी चाहिए । यही इस जीवका सच्चा रक्षक है यही शुभ गतिमें व परम्परा मोक्ष में इस जीवको पहुंचाने वाला है । वास्तव में इस जगतमें कोई भी तीव्र कर्म के उदयको टाल नहीं सकता है।
कि
पद्मनंदि मुनि अनित्य पंचाशत् में कहते हैंकिं देवः किमु देवता किया मणिः । कि मंत्रः किमुताध्यः किमु सुहृत् किं वा सुगंधोस्ति सः ॥ अम्पे वा किमु भूपतिप्रभूतयः सस्था लोकठाये यैः सर्वेरपि देहिनः स्वसमये कर्मोदितं धार्यते ।। ३२ ।। भावार्थ- न कोई देव है न कोई देवी है, न वैध है न कोई विद्या है, न कोई मणि है न मंत्र है, न कोई आश्रय है न कोई मित्र है, न कोई गंध है न कोई और राजा आदि इस तीन लोक में हैं जो प्राणियोंके उदयमें आए हुए कर्मको रोक सके । मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द
बलप्रद भोजन भी प्राणिगण नाश करता ।
तब विष फल खाना, क्यों नहीं मर्ण करता । हितकारी माता, बाल अपना हने है । कौन फिर इस जगत में, शणं जिय राबले है ॥ ११३ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि इस जोव को अपनी करणी का फल अकेला ही भोगना पड़ता है
-
विविधसंग्रह कल्मष मंगिनो विदधलेंग कुटुंब कहेतवे । अनुभवस्य सुखं पुनरेकका नरकवासमुपेत्य सुदुस्हम् ।।११४