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________________ तत्त्वभावना [२७९. के मरण हो जाने पर वृथा मोह नहीं करना चाहिए । इस जगत में तू ऐसा कोई उपाय शीघ्र ढूंढ़ जिससे काल अपना दांव न कर सके। मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द सेनापति मंत्री, अर पुरोहित सिपाही । सुर असुर खगाधिप, इन्द्र बाहुबल धराई ।। जब यमभट जनको, लेत है पाव माई । दुःखित हो प्राणो, नहिं सके तब बचाई ॥११२ उत्पानिका-शाने महते हैं कि इस संसार में कोई अपना पक्षक नहीं हैबालकृतोऽशनतोऽपि विपद्यते, यदि जनो न तवा परतः कथम् । यवि निहन्ति शिशुं जननी हिता, म परमस्ति तवा शरणं ध्रुवम् ॥११३ अन्वयार्ष--(यदि) यदि(जनः) यह मानव (बलकृतः)शरीर को बलदाई (अशनतःबपि) भोजन से ही (विपद्यते) विपत्ति में आ जाते हैं, रोगी हो जाते हैं तथा मरण कर जाते हैं (तदा) तब (परतः) दूसरे विष आदि पदार्थोसे (कषम् ) किस तरह बच सकते हैं ? (यदि) जब (हिता) हितकारों (जननो)माता(शिशु) बच्चेको (निहति) मार डालती है (तदा) तव(ध्रुव) निश्चयसे (शरण) शरणमें रखने वाला (पर न अस्ति) दूसरा कोई नहीं है। मावार्थ-इस संसारमें कोई जीव किसी को मरणसे बचाने वाला नहीं है । जिस भोजनसे शरीरको रक्षा होती है व बलदाई होता है वही भोजन रोगी प्राणी के लिए विषमज्वर पैदा करके उसके प्राणोंका अन्त करने वाला हो जाता है । इस जगतमें कोई
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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