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तवंभावना
_ [ १५७ धर्मापोधियः परस्परमिमे निम्नति निष्कारणम् । यत्तधर्ममपास्य नास्ति भुवने रक्षाकरं देहिनां ॥५॥
अन्वयार्थ--(कश्चन) कोई मानव (अनुदिनं) प्रतिदिन (निरंतर) बहुतमी (दायां) बाधा कारक (विरुद्धक्रियां) विरुद्ध क्रिया को (कुर्वाण: अपि) करता रहता है तो भी.. (धर्मारोपित मानसः रुचिभिः) धर्म में मन को जमाये रखने वाले रुचिवान प्राणियोंके द्वारा (न) नहीं (व्यापाद्यते) पीड़ित किया जाता है, (धर्मापोढधियः) धर्म में जिनकी बुद्धि नहीं है ऐसे मानव (परस्परम्) परस्पर. (निष्कारणम्) बिना कारण (निघ्नंति) घात करते रहते हैं (यत् तत् धर्मम्) ऐसा धर्म है उसको (अपास्य) छोड़कर (भवने) इस जगत में (देहिना) शरीर धारियों की (रक्षाकरं) रक्षा करने वाला और (नास्ति) नहीं है।
भावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने धर्म की महिमा बताई है कि जिनके चित्तमें धर्मभाव है, जो दयालु है व क्षमावान है वे किसी को पोड़ा नहीं देते। यदि कोई उनको बाधा देता है व उनके विरुद्ध क्रिया करता है तो भी उस पर क्षमा भाव रखके उनको कष्ट नहीं देते । वीतरागी जैन साधुओंमें धर्म भाव पूर्ण रोति से भरा रहता है इसलिए वे किसी को सताते नहीं है कोई उपसर्ग करे तौभी क्रोध नहीं लाते हैं। यह महिमा उनक भीतर शांत भावरूपी धर्मही की है परन्तु जिनके हृदय में दया, क्षमा, शांति आदि धर्म नहीं होते हैं व बिना कारण ही एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं व कष्ट देते रहते हैं व प्राण तक लेते रहते हैं। वास्तवमें तीन लोकमें जीवोंकी रक्षा करने वाला एक धमही है । धर्म जिसके मन में है वह प्राणियों का रक्षक है। धर्म जिसके मन नहीं वह प्राणियों का हिंसक है। यदि कष्ट दूंगा तो इसको