SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५० ] अन्नाविक शोध कराई, तातें जु जीव निसराई । तिनका नहिजलन कराया, गरियाल धूप डराया ॥२५ पुनि द्रव्य कमावन काजे, बहु प्रारंभ हिंसा सार्ज । किये तिसावश प्रभारी, करुणानहि रंचविचारों |२६ इत्यादिक पाप अनंता, हम कोने श्री भगवंता । संतति चिरकाल उपाई, वाणी से कहिय न जाई ॥ २७ ताको जु उदय अब श्रायो, नाना विध मोहि सतायो । फल भुंजत जिय दुख पावे, वचते कैसें करि गावै ॥२८ तुम जानत केवल जातो, दुख दूर करो शिवथानो । हम तो तुमशरण नही है, जिन तारन विरदसही है । २8 इक गाँवपती जो होथे, सो भो दुखिया दुख खोये । तुम तीन भुवन के स्वामी, दुख मेटहु अंतरजामी ॥३० द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता-प्रति कमल रचायो । अंजन से किये प्रकामी दुख मेटो अंतरजामी ॥३१॥ मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपना विश्व सम्हारो । सब दोष रहित कर स्वामी, दुख मेटहु प्रन्तरजामी ॥३२ इंद्रादिक पदवी नह चाहूँ, विषयनि में नाहि लुभाकं । रागादिक दोष हरीओ, परमातम निज पद बीजे ॥३३॥ वोहा- वोष रहित जिनदेवजी, निज-पव वीज्यो मोय । · सब जीवन के सुख बढ़ें आनंद मंगल होय ॥ अनुभव मासिक पारखी, जौहरि प्राप जिनन्द | येही वर मोहि बीजिए, चरण शरण मानन्व ॥ आत्मध्यान का उपाय
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy