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________________ तत्वभावना [१७ बेखबर रहते हैं वश शीघ्र ही कालके गाल में चबाए जाते हैं, ऐसे संसार वनमें सुखशांति कैसे मिल सकती है ? बुद्धिमान प्राणोको तो इससे निकलना ही ठीक है। सुभाषित रत्नसंदोह में श्री अमितमति महाराज कहते हैंमस्युष्याघ्रमयंकराननगतं भीतं जराज्याधतस्त्रोतव्याधिदुरम्सदुःखातरुमत्संसारकान्तारगम् । कः शक्नोति शरीरिणम् विभुवने पातुं नितान्तातुर स्यकत्वा आतिजरातिक्षतिकरं जनेन्द्रधर्मामृतम् ।।३१७ भावार्य-जो प्राणी तीव्र रोगोंके अपार दुःखों में भरे हुए संसार वन में हो व बढ़ापा रूपी शिकारी से भयभीत रहता हो व भयभीत रूपी बाघ के भयंकर मुख में प्राप्त हो उस महान् याकुलता में फंसे हुए प्राणोको तीन भुवनमें जन्मजरा मरणको नाश करने वाले जिनधर्म के सिवाय और कोई बचाने को समर्थ नहीं है। मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द भव बम भयकारी दुःख अग्नि प्रधारी । विपति तह मराई तण विषय स्वावकारी। जम मृग बहु धमें जन्म अरु मृत्यु दुःख में।। हिंसक पशु खायें हो कयं शांति सुख में ।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि बुद्धिमानों को संसार में लिप्त न होकर आत्मकार्य कर लेना चाहिए। भुजंगप्रयात छंद न वैद्या न पुत्रा न विप्रा न शका। नकांता न माता न भत्या न भूपाः ।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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