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________________ १६४ ] ( न अस्ति ) नहीं हो सकती है। जैसे (वित्रमरीचिसंचयथिते देशे ) कड़ी धूप से तप्लायमान स्थान में या आग में तपाए हुए स्थान में ( कुतः ) किस तरह ( वल्ली) वेल (जायते) जग सकती है । तत्त्वभावना भावार्थ- यहाँ पर आचार्य ने भोगा सकता मानवकी भोगों की वांछाको धिक्कारा है । इस जीवने अनंतकाल हो गया। चारोंहो गति के भीतर भ्रमण करते हुए अनेक शरीर धारण करके उनमें अनेक प्रकार इंद्रियों के भोग भोगे और छोड़े, उनके अनतकाल भोग लेने से भी जब एक भी इंद्रिय तृप्त नहीं हुई तब अब भोगोंके भोगने से इन्द्रियां कैसे तृप्त होंगो ? वास्तव में जैसे अग्निमें इन्धन डालने से अग्नि बढ़ती चली जाती है वैसे इन्द्रियों के भोगोंके भोगने से तृष्णाकी आग और बढ़ती चली जाती है । तृष्णावान प्राणी कितना भी भोग करे परन्तु उसको इन भोगों से कभी भी तृप्ति नहीं हो सकी है जैसे अग्नि से या धूप से तपे हुए जलते स्थानमें कोई भी बेलका वृक्ष नहीं उग सकता है । इसलिए बुद्धिमानों को बारबार भोगोंको भोगकर छोड़े हुए भोगों की फिर इच्छा न करनी चाहिए। क्योंकि जो तृष्णारूपी रोग भोगोंके भोगनेरूप औषधि सेवन से मिट जावे तब तो भोग को चाहना मिलाना व भोगना उचित है, परन्तु भोगों के कारण तृष्णाका रोग और अधिक बढ़ जाये तब भोगोंकी दवाई मिच्या है यह समझकर इस दवाका राग छोड़ देना चाहिए। वह सच्ची दवा ढूढ़नी चाहिए जिससे तृष्णाका रोग मिट जावे । वह दवा एक शांत रसमय निजआत्माका ध्यान है जिससे स्वाधीन आनंद जितना मिलता जाता है उतना उतना ही विषय भोगोंका राज घटता जाता है स्वाधीन सुख के विलास से ही विषयभोग को वांछा मिट जाती है। अबएव इन्द्रिय सुख की आशा छोड़कर 2
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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