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________________ २२२] ता भावना निरोगी पुरुष के (परां प्रकृष्टां पुष्टि) बहुत पुष्टि था शक्ति (वितरति) देता है। भावार्थ-इस लोकमें आचार्य ने दिखलाया है कि परपदार्थ न बंधका कारण है न मोक्षका कारण है । असल में राग भाव या ममताभाव कर्मबंधका कारण है और ममतारहित वीतराग भाव कर्मोके ताशका कारण है। जिनके पास धन धान्य परिग्रह न हो परन्तु रागद्वेष या परिग्रह का ममताभाव बहुत अधिक हो तो उनके कौंका बंध हो जायगा तथा जिन ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीवों के पास धनादि परिग्रह हो पर जो अपने स्वाभाविक ज्ञान व वैराग्यके बलसे उसको अपनी वस्तु नहीं जानते हों किन्तु मात्र पुण्योदयसे प्राप्त परवस्तु मानते हों उनके चित्तमें मोहभाव नहीं होता है। इससे यह परिग्रह उनके लिए अधिक कर्मकी निर्जरा का कारण है। चारित्रमोह के उदय से उनके जो अल्प रागद्वेष होता है उससे नो कर्मबंध होता है वह इतना कम है कि वह संसारके भ्रमणका कारण नहीं होता है। जबकि मोहो अज्ञानी मिथ्यादृष्टी जीवके भावोंमें धनादि परिग्रह हो या न हो, जगतके पदार्थों से बड़ा भारी ममत्व होता है इसलिए वह बहुत अधिक बंध करता है । अज्ञानीका बंध संसारभ्रमणका कारण है। परंतु शानी का बन्ध मोक्षमें बाधक नहीं है। उस ज्ञानीके जितना-२ वीतरागभाव बढ़ता जाता है उतनी-२ अधिक निर्जरा होतो जाती है। समवशरणमें बहुत रत्नोंकी व सुवर्ण आदिकी रचना होती है वहीं श्री केवली भगवान विराजमान होते हैं। केवली भगवान पूर्ण वीतराग हैं उनके उस समवशरण की विभूति से रञ्चमात्रभी कर्मोंका बंध नहीं होता है। प्रयोजन कहनेका यह है कि रागी जोवके परिग्रह बन्धका कारण है तथा वीतरागी के यह निर्जरा का कारण है। जो सम्यग्दृष्टी गृहस्थ होते हैं वह
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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