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________________ तत्त्वभावना [ २२१ आकाशको अपनी मुट्ठीसे मारता है, सूखी नदीमें तैरता है, प्यास से घबड़ाया हुआ मृग जल को पीना है ! ये सब स्त्री पुत्रादि दवाई इसी र नगर होने जाले हैं जैसे ने पर्वत की चोटी से भाई हुई हवा के झोंके से दीपक की लौ बुझ जाती है। इनको अपना मानना मूर्खपना है । ___मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो वारा सुत गृह अनित्य वस्तु हैं भिन्न निज आत्मसे । रहते बाहर देह संग चंचल हो पुण्य परताप से ।। जो मूरख संपत्ति जान उनको सुखवाय सो दुख सहे। मानो माने देव लक्ष्मि धरता मन बोच सोचा करें 1८५॥ उत्यानिका-आगे कहते हैं कि जगतके पदार्थोंसे राग दुःखकारी है जब कि वैराग्य सुखकारी है मन्दाक्रांता छन्द यद्रमतानां भवति मुवमे कर्म बंधायपुंसां । नीरागाणां कलिमलमुचे तति मोक्षाय वस्तु ।। यन्मृप्त्यर्थ अधिगुडघतं सन्निपाताकुलामां। नीरोगाणां वितरति परां तखि पुष्टि प्रकष्टाम् ॥८६ अन्वयार्थ-(भवने) इस लोक में (यद् वस्तु) जो पदार्थ (रक्तानां) रागी पुरुषोंके लिए (कर्मबंधाय) कर्मोके बंधके लिए भवति) होता है (तत् हि) वह ही पदार्थ (नीरागाणां) वीतरागी पुरुषों के लिए (कलिमलमुचे मोक्षाय) कर्मरूपी मलको छुड़ाकर मोक्षके लिए होता है जैसे (यत् दधिगुडघृतं) जो दही गुड़ तथा धी (सन्निपाताकुलानां) सन्निपात से व्याकुल पुरुषों के लिए (मृत्यर्थं) मरणके लिए होता है (वत् हि बह ही (नीरोगापां)
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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