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________________ तत्त्वभावना बाल द (निर्वतिकरे) मोक्षको प्राप्त कराने वाले (जैने बर्चास) जिन वचन में (न रमसे) रमण नहीं करता हैं। भावार्थ-- यहां पर आचार्य इस मूर्ख मनको समझाते हैं कि तू ऐसा शरीर स्त्री, धन, पुत्र, कुटुम्ब आदि के मोह में पड़ा हुआ हैं कि रात-दिन तेरे यही विचार रहा करता है कि मैंने यह काम ती कर लिया है और यह काम मैं इस समय कर रही है। ऐसा पैसा काम मुझे भविष्य में करना है, मह तेरी विचारोंकी श्रृंखला तेरी जिन्दगी भर चलती रहती है। जैसे विचार करता है कि अब इतना धन कमा लिया है, अब वह धन कमा रहा हूं, अभो इतना धन कमाना है । एक पुत्रको विवाह कर चुका हूं दूसरेका विवाह करना है। एक पुत्रको व्यापार में लगा चुका हूँ दूसरेको व्यापार में लगाना है। पुत्रके पुत्रका अर्थात् पोते का मुंह देखना है। पोता होवे तो शीघ्र बड़ा करके उसका विवाह करके उसकी बधू को भी देखना है। उसने मेरा बड़ा बिगाड़ किया है उसे इसका बदला पहुंचाना है। मेरी स्त्री बाईत वस्त्राभूषण पाहती है इसके लिए गहना बनवाना है। आज अमुकं व्यापारी का दिवाला निकल गया । रकम डुब गई क्या करूं। उस पर किसी तरह मुकद्दमा चलाना है । इस तरह करोड़ों कामोंकोतू विचार करता है । सवेरे से शाम होती है, शाम से सबेरा होता है, तू तो संसारी काम धंधोंकी ही चितामें फंसा रहता है, कभी उन कामों की डोरी नहीं टूटती। उधर मरण निकट आ जाता है, तू बावला अपने आत्मा के हित के लिए कुछ भी समय नहीं निकालता है-ममता मोहमें और रागद्वेष में फंसा हुआ सारा जीवन बिताकर इस अमूल्य नरजन्म को खो देता है। परमोपकारो जैनधर्म में रुचि नहीं लगाता है ने जिनवाणी को पड़ता है जिससे.
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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