SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तस्वभाधना तदेवकं परं तस्वं तदेवकं परं एवम् । मयाराध्यं तवेधकं तदेवकं पैरं महः ॥४४॥ मुमणां तदेवकं मुफ्तेः पंथा न वापरः। आनन्दोपि न चान्पन्न तद्विहाय विभाव्यते ॥४६॥ इलाकण्याक्षणानंमहकताधियः । तदेवकं परं बोजं निःश्रेयसलससरोः ॥५०॥ भावार्थ-जो कोई चैतन्य स्वरूप है, जो कोई जानता है, जो कोई देखता है वही मैं हूँ। वह एक उत्कृष्ट पदार्थ है इसलिए मैं निश्वयसे उसी एकके साथ एक भावपनेको प्राप्त हो गया हूं॥७६ : रागादि द्रव्य कर्म और उनके कार्य रागादि भाव विवेकियों के लिए त्यागने योग्य हैं। शुद्ध उपयोग लक्षणको रखने वालो एक उत्कृष्ट ज्ञान ज्योति ही ग्रहण करने योग्य है ।।७४॥ ___ वही एक उत्कृष्ट तत्त्व है वही एक उत्कृष्ट पद है। भव्य जीवों के लिए वहो एक आराधने योग्य हैं। वहीं एक परम ज्योतिमय है ॥४४॥ मोक्षकी इच्छा करने वालोंके लिए वही एक मुक्तिका मार्ग है दूसरा नहीं है, उनको छोड़कर आनन्द और कहीं नहीं पाया जाता है ।।४।। ___अविनाश मोक्षरूपी शोभायमान वृक्षके लिए जो वृक्ष अविन नाशी आनन्दरूपी महाकाल के भार से चमकता रहता है वही एक आत्मतत्त्व परम बीज है ॥५०॥ इन श्लोकों से यही बताया है कि शुद्ध आत्मा का अनुभव ही आनन्द का दातार है 4 स्वाधीनता का उपाय है। वही निरन्तर सेवने योग्य है। .
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy