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________________ ३१६ ] आत्मध्यान का उपाय देने वाला है । पंडित जयचन्द्रजी ने कहा है-- चौ---या पिंास्थ ध्यान के माहि, देह विर्षे चित आतम साहि । चितवें पंच धारणा धारि, निज आधीन चित्तको पारि ॥ (२) पदस्थ ध्यान का स्वरूप पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यविधीयते । तस्पवस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगः ।। भावार्थ—पवित्र पदों के सहारेसे जो ध्यान योगियों के द्वारा किया जाता है वह पदस्थ ध्यान है ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। पदों के सहारे शुद्ध आत्मा अरहंत या सिद्ध आदि या उनके गुणों का ध्यान करना सो पदस्थ ध्यान है 1 किसी नियत स्थान पर पदों को विराजमान करके उनको देखते हुए चित्त को जमाना तथा उनका स्वरूप बीच बीच में विचारते रहना । श्रद्धान यह रखना कि हम शुद्ध होने के लिए शुद्धात्माओं का ध्यान कर रहे हैं। इसके लिए अनेक पदों का ध्यान श्री ज्ञानार्णव जी में कहा है। यहां कुछ मंत्र बताए जाते हैं (१) वर्णमात का मंत्र । ध्यान करने वाला अपनी नाभिमें जमे हुए एक मोलह पत्तों के कमलको सफेद रंगका चितवन करे इन पर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः इन सोलह स्वरोंको पीले रंगका लिखा हुआ व क्रम से पत्तों पर धूमता हुआ विचारे, फिर हुदयस्थानमें चौबोस पत्तोंके कमलको सफेद रंगका विचारे । उसको मध्य की कणिकाको लेकर पच्चीस स्थानोंपर पच्चीस व्यंजन पीले रंग के लिखे --
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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