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________________ आत्मध्यान का उपाय (३) श्वसना या वायुधारणा फिर वही ध्यानी ऐसा चितवन करे कि चारों तरफ बड़े जोर से निर्मल पवन बह रही है व मेरे चारों तरफ वायु ने एक मंडल गोल बना लिया है, उस मंडल में आठ जगह घेरेमें 'स्वाय स्वाय' सफेद रंग का लिखा हुआ है। फिर ऐसा सोचे कि यह वायु उस कर्म व शरीर की राख को उड़ा रही है व आत्मा को साफ कर रही है एसा ध्यान करे । (४) वारणी या जल धारणा फिर वही ध्यानी विचार करे कि आकाश में मेघों के समह आगए, बिजली चमकने लगी, बादल गरजने लगे और खूब जोर से पानी बरसने लगा। अपने को बीच में बैठा बिचारे, अपने ऊपर अर्ध चन्द्राकार पानी का मण्डल विचारे तथा पप प प जल के बीजाक्षर से लिखा हुआ चिन्तवन करे और यह सोचे कि यह जल मेरे आत्मापर लगे हुए धूलको साफ कर रहा है-आत्मा बिलकुल पवित्र हो रहा है। (५) तत्वरूपवतो धारणा फिर वही ध्यानो चितवन करे कि अब मैं सिद्धसम सर्वज्ञ धीतराग परम निर्मल कर्म व शरीररहित मात्र चैतन्यात्मा हूं, पुरस्कार चैतन्य धातुकी बनी शुद्ध मूर्ति के समान हूं, पूर्ण चन्द्रमाके समान ज्योतिरूप दैदीप्यमान हूं। यह पिंडस्थ ध्यान का स्वरूप है। इनमें से हरएक धारणाका क्रमसे अभ्यास करे। जब पाँचों का अभ्यास हो जावे तब हर दफे जब ध्यान करे तब इन पांचों धारणाओं के द्वारा पिंडस्य ध्यान को करे । अन्त में देर तक शुद्ध आत्मा का अनुभव करे। यह ध्यान वास्तव में कर्मों को जलाता है और आत्मीक आमन्द का
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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