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________________ २६८ ] तत्त्वभावना हो (स्वाधीनाः) स्वाधीन है (यत्तत क्योंकि (व्यपगततमोज्ञानसम्यक्तपूर्वाः) उनका अज्ञान अन्धकार सम्यक्तपूर्वक ज्ञान द्वारा नष्ट हो चुका है वे (अन्य शिक्षा न पोष्यंते) अन्य शिक्षाकी पुष्टि नहीं करते हैं (अत्र) यहां (मम उरी) मेरे दिल में(परं चित्र) कोई परम आश्चर्य (न विद्यते) नहीं होता है । भावार्थ- जो स्वयं जिस कामको सिद्ध कर लेता है वह उस काम में दूसरे को भी लगाकर उसका उद्धार कर सकता है। अर्हन्त भगवान सम्यग्ज्ञान की सेवा करके स्वयं कों के बंधन से छूटकर स्वाधीन हो गए । वे अपनी दिव्यवाणी से इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं कि जो कोई सम्यक्तपूर्वक ज्ञानको प्राप्त करके आत्मानुभव करेगा वह संसारसमुद्र से उसी तरह पार हो जाएगा जिस तरह हमने पार लिया है। इ स समय शिक्षा को ग्रहण करते हैं व उस पर चलते हैं वे भी शीघ्र संसारसमद्र से पार हो जाते हैं और उस मोक्षलक्ष्मी को पा लेते हैं जिसके लिए सन्तपूरुष निरन्तर भावना किया करते हैं व जिसका कभी क्षय नहीं होता है तथा जो कर्ममलसे रहित निर्मल है। आचार्य कहते हैं कि जो स्वयं तर गए हैं उनके द्वारा यदि दूसरे तार लिए जाँय तो कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। जो जहाज स्वयं तैरता है वही दूसरों को भी अपने साथ पारकर देता है। तात्पर्य यह है कि हमको श्रीअरहन्त भगवानको परमोपकारिणों शिक्षा के ऊपर चलकर अपना आत्मोद्धार कर लेना चाहिए। स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में अरहंत का स्वरूप बताते हैं भाषामावस्वरुपं सकलमसकल द्रव्यपर्यायतत्वं । भेषामेवावलीढं निभवनमुखनाम्यातरे वर्तमानम् ॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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