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________________ तस्वभावना [२६७ पढ़ते व सुनते हुए भी तत्व का निश्चय नहीं होता है तब फिर तेरे आश्रय बिना पुरुष में भेद विज्ञान कैसे होगा? जो तेरी सेवा नहीं करते उनका जन्म निष्फल है । तू ही पवित्रज्ञान जल को रखने बालो नदो स्वरूप है, तू तोन लोक के जीवोंको शुद्ध करने का कारण है और तूही निश्चय आत्मतत्वके श्रद्धान करनेवालों को आत्मानन्दरूपी समुद्र के बढ़ाने क लिए चन्द्रमाके समान है । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो अगतारण मोक्षलक्ष्मिवतो सदशनं वायका, अनुपम जिनवर वाणि पाठ करते सुनते रुधिधारक । ते सज्जन दुष्प्राप्य आज जगमें क्रोधाविमल पूर जो। कहना क्या उनका स्वमुक्तिहेतू साधे परमज्ञान जो ॥१०॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो इस संसार समद्र से तर गए हैं वे अरहंत इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं कि अन्य जीव भी तिरेंये स्तयां जन्मसिधोरसुखमितितोलया तारयित्वा । नित्यं निर्धाणलक्ष्मी बधसमितिमता निर्मलामपंयन्ते ।। स्वाधोनास्तेऽपि यत्तस्यपगततमोजानसम्यक्त्वपूर्वाः । पोष्यन्से नान्यशिक्षा मम परममुभौ बिद्यते नान चिनम् 1१०६ अन्वयार्थ-(ये) जो असुखमिलिततेः जन्मसिधो:) दुःखों के समूहसे भरे हुए संसार समुद्रसे(लीलया तारयित्वा)लोला मात्र में पार उतारकर (स्तूयाँ) प्रशंसनीय (नित्यं)अविनामी (बुधसमितिमतां) बुद्धिमानों से माननीय (निर्मलाम्) निर्मल(निर्वाणलक्ष्मी) मोस लक्ष्मी को(अपंयन्ते) प्रदान करते हैं (तेपि) के
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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