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तस्वभावना
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वास्तव में किसी भी कर्मकृत विकारों से विकारी नहीं हो जाता है । निश्चय से आत्मा शुद्ध स्वभाव में ही रहने वाला है। ऐसा विचारवान को विचारना चाहिए। ऐसा ही श्री पननंदि मुनि ने एकत्वाशीतिमें कहा है
कोधाविकर्मयोगेऽपि निर्विकारं परं महः । विकारकारिभिमधन धिकारि नमो मवेत ॥३५॥ नाम हि परं तस्मान्निश्चधात्तवनात्मकम् ।
जन्ममृत्यादि चारोषं वपुधर्म विबुर्युधाः ॥ भावार्थ-जैसे विकारी होनेवाले मेघोंसे आकाशका स्वभाव विकारी नहीं होता है वैसे क्रोधाविक कर्मों का संयोग होने पर भी उत्कृष्ट तेज वाला मात्मा भी क्रोधी मानी आदि रूप नहीं होला । इस आत्मा के स्वभाव से तो नाम भी भिन्न हैं क्योंकि चैतन्यप्रमुका कोई नाम नहीं है । जन्म-मरण रोग आदि ये सर्व स्वभाव शरीर के हैं ऐसा ज्ञानी लोग मानते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द मोटे सूक्ष्म वीर्घ देह बहुविध हैं कर्मने जो रचे। इनमें वसता आस्म हो न उनसा निजभाव आतम नचे ।। काला पोला लाल श्वेत कपड़ा जो देह को ढाकता। काला पोला लाल श्वेत तनको, कबहू न कर डालता ॥६६ उत्थानिका--आचार्य और भी आत्माका स्वरूप कहते हैंगौरो रूपधरो दृढः परिवढ़ः स्थलः कृशः कर्कशः। गोर्वाणो मनुजः पशु रकमः षंढः पुमानंगना || मिथ्या त्वं विषधासि कल्पनमिवं मूढो विबुध्यात्मनो । नित्यं ज्ञानमयस्वभावममलं सर्वव्यापायच्यतम् ॥७०॥