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________________ तस्वमावना [२६१ उस्थानिका—आगे कहते हैं कि जो आत्मा के सच्चे सुखको प्राप्त करना चाहते हैं उनको अपमे परमात्मस्वभाव का निस्य चिन्तवन करना उचित है सर्वज्ञः सर्वदर्शी अवमरणजरातकशोकव्यतीतो। लब्धात्मीयस्वभावः शतसकलामलः शश्वदात्मानपायः । वः संकोवितासंभवमतचकितर्लोकयावानपेक्षः। नष्टाबाधामनोमस्थिरविशवसुखप्राप्तये चिंतनीयः॥१२० अन्वयार्थ (दौ :) मोतु पुरुष (गीशिवार: सी इंद्रियों को वश में रखनेवाले हैं, (भवतिचकितैः) जन्म मरणसे भयभीत हैं, (लोकयात्रानपेक्षः) संसार के भ्रमण से उदास है उनको (नष्टाबाधात्मनीनस्थिरशिदसुखप्राप्तये) बाधा रहित, स्थिर व निर्मल आत्मीक सुखकी प्राप्ति के लिए (शाश्वत्) सदा ही (सर्वज्ञः) सबको जानने वाला (सर्वदर्शी) सर्वको देखनेवाला (भवमरणजरातकशोकव्यतीतः) जन्म, मरण, जरा, शोक आदि दोषों से रहित (लग्यास्मीयस्वमाकः) अपने स्वभाव को प्राप्त किए हुए (क्षतसकलमल:) सर्व कर्ममलों से रहित (अनपायः) अविनाशी (आत्मा) अपने आत्मा को ही (चिन्तनीयः) ध्यानमें ध्याना योग्य है। मावाप-इस श्लोक में आचार्यने इस तत्त्वभावना का सार बता दिया है कि जो भव्यजीव अपने आत्मतत्त्वको प्राप्त करके बात्मीक सच्चे सुखको भोगना चाहें जो सुख स्थिर है, बाधारहित है, उनको उचित है कि वे पहले अपनी पांचों इन्द्रियों को वश करें, क्योंकि इन्द्रियों की चाहना ध्यान में बाधक होती हैं फिर वह मन में दया ला कि मेरा आत्मा इस संसार में बारबार शरीर धारण कर जन्म-मरणके कष्ट न उठावें।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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