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तस्वभावना
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ध्यानके अभ्यासी को शास्त्रों का ज्ञान व उनका निरन्तर मनन रहना चाहिए। शास्त्रों के द्वारा मनकी कुज्ञानसे बचकर सुज्ञान में 'दृढ़ता प्राप्त होती है। जितना साफ व अधिक तत्वों का ज्ञान होगा | उतना ही अधिक निर्मल ध्यान का अभ्यास होगा इसी तरह ध्यान के अभ्यासीको व्रती भी होना चाहिए। या तो पूर्ण त्यागी साधु हो या एक देश त्यागी श्रावक गृहस्थ हो । अबिरति में तिष्ठनेवालोंके ध्यानका अम्बास बहुत ही अरूप होता है । व्रती नियमानुसार सर्व कार्य करते हैं। इसलिए ध्यान के लिए अवश्य समयको निकाल लेते हैं ।
वही आचार्य और भी कहते हैं
मा मुक्तह मा रज्जह मा दुस्सहं इट्ठणिट्टअत्थेषु । थिरमिच्छह जइ वित्तं विचित्तज्ञाणप्पसिखीए ॥४६॥
भावार्थ यदि चित्तको नाना प्रकारके ध्यानकी सिद्धिके लिए अपने आधीन करना चाहते हो तो इष्ट व अनिष्ट पदार्थों मेंमोह मत करो, राग मत करो, द्वेष मत करो। ध्यान करनेवाले के मन में यह सच्चा वंशग्य अवश्य होना चाहिए कि इस लोक में कोई पदार्थ अपना हो नहीं सकता । किसोको अपना मानना बड़ी भारी भूल है। इस प्रकार निश्चय करके अपना मोह किसी चेतन व अचेतन पदार्थपर नहीं रखना चाहिए। तथा ज्ञानी को आत्मीक सुखको हो सच्चा सुख मानना चाहिए। इंद्रिय द्वारा पैदा होने वाले क्षणिक सुखको सुख नहीं मानना चाहिए । अज्ञानी प्राणी इंद्रियसुखके हो कारण उन चेतन व अचेतन पदार्थोंसे राग करते हैं, जो विषयसुख में मददगार हैं व जो हानि पहुंचानेवाले चेतन ब अचेतन पदार्थ हैं उनसे द्वेष कर लेते हैं। ज्ञानी आत्मसुख का प्रेमी होकर न किसी से राग करता है न किसीसे द्वेष करता है।
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