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तत्त्वभावना
भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! जो मैंने अपने मन वचन कायके द्वारा इस समय तक पाप किया हो, कराया हो व दुसरों से किये जाने पर उसे भ्रमबुद्धि में पड़कर भला माना हो ऐसे नव तरहके दोष जो पहले लगे हों व अब लगते हों व आगे लगेंगे उन सब दोषों का नाश हो । मैं आपके सामने अपनी निन्दा कर रहा हूं।
___ मूल श्लोकानुसार छन्द गीता हे देव ! आलस ठान हो अविवेक वषपथ नासिया । कर क्रोध लोभ प्रमाव मान कु काम द्वेष प्रकाशिया ॥ चारिख शुद्ध विरुद्ध जो कुछ भी रहित मैंने किया। जिनराज ! तव परसाद से हो नाश मैं अघ बांधिया ॥३॥
उत्थानिका...आगे भावना करते हैं कि मेरा समय धर्मध्यान व रत्नत्रय को एकाता में वति
जीवाजीवपदार्थतत्त्वविवषो बंधानवी चंपतः। शाश्वसंवरनिर्जरे विवधतो मुक्तिप्रिय कांशतः ।। वेहावेः परमात्मतत्त्वममलं मे पश्यतस्तत्त्वतो । धमध्यानसमाधिशुद्ध मनसः कालः प्रयातु प्रभो ॥४॥ अन्वयार्थ - (प्रभो) हे प्रभु ! (जीवाजीवपदार्थतत्त्वविदुषः) जीव और अजीव पदार्थों को जानते हुए (बंधानवी रुंधतः) आस्रव और बंधको रोकते हुए (शाश्वत) निरंतर (संवरनिर्जरे विदधतः) संवर और निर्जराको करते हुए (मुक्तिप्रियं कांक्षतः) मोक्षरूपी प्रियाकी चाह रखते हुए (देहादेः) शरीर आदि पर पदार्थोसे भिन्न (अमल) निर्मल (परमात्मतत्व) परमात्माके स्वरूपको (तत्वतः) यथार्थ रूपसे {पश्यतः) अनुभव करते हुए और