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________________ तत्वभावना धर्मध्यानसमाधिशुद्धमनसः) धर्मध्यान और समाभाव में शुद्ध मनको लगाते हुए (मे) मेरा (काला:) समय (प्रयातु) वीते। भावार्थ - इसमें आचार्य ने जैन सिद्धांत के मूलश्लोकभूत सात तत्वोंका संकेत करते हुए उन पर श्रद्धानको दृढ़ किया है। तथा उनमें कौन ग्रहण योग्य हैं व कौन त्यागने योग्य हैं इस भेद विज्ञान का स्वरूप निश्चय और प्यवहारनय दोनोंसे बताया है। असल बात यह है कि जिसको सुखशांति पाने की चाह हो व अपने आत्माको पवित्र करनेको रुचि हो उसको सात तत्त्वोंको भले प्रकार समझकर उन पर अपना विश्वास नाना चाहिए। जीव और अजीव नत्व में तो यह समझाया है कि यह लोक जीव और अजीव पदार्थों का समुदाय है। बिना इन दो पदार्थों को माने हुए संसार और मोक्ष वन ही नहीं सकता है । यदि एक मात्रजीव ही पदार्थ होता तो सब जीव शुद्ध अपने स्वभाव ही में पाए जाते । न कोई अशुद्ध होता न कोई दुःखी होता न शुद्ध होने के लिए व सुखी होने के लिए कोई धर्म का साधन करता। क्योंकि जीव का स्वरूप जानदर्शन सुख शांतिमय है। यह स्वभाव से सबको जानने देखने की शक्ति रखता है, क्रोधादि इसका स्वभाव नहीं है किन्तु शांति इसका स्वभाव है, जानंद भी इसका स्वभाव है। सब हो जीव परमात्म स्वरूप हो उस लोक में होते यदि एक जोव पदार्थ ही होता और यदि एक अजीब पदार्थ ही होता तो सब कुछ जड़ अचेतन होता फिर कोई जानने वाला व सुख दुःख को वेदने वाला नहीं होता फिर कहना सुनना समझना समझाना कुछ भी नहीं होता सो दोनोंका एकांत नहीं है। जगत में जोवभी
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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