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ही भूलोंसे छोटे या बड़े रोग पैदा हो जाते हैं । तब गृहस्य लोग उनके दूर करने के लिए औषधियां काम में लेते हैं कि वह रोग शीघ्र मिट जावे, अधिक न बढ़े जिससे कि शरीर बेकाम हो जावे | इसी तरह मुनि व श्रावक बड़ी सावधानी से अपना आचरण पालते हैं तथापि कभी-काही कारणों के वश होकर चलने में देखनेका प्रमाद हो जावे, बोलने में कठोर व कषाय युक्त बचन निकल जावे, भोजन में स्वादिष्ट पदार्थ की लालसा हो जावे, किसी स्त्रीको देखकर मनमें विकार हो जावे, असुहावनी कृति को देखकर मन में अरतिभाव माजावे, सामायिक करते हुए धर्मध्यान न होकर किसी कारण से आतंध्यान हो जावे इत्यादि दोष हो जाना संभव है। तब वह मुनि या श्रावक प्रतिक्रमण करके तथा परमात्मा के पवित्र गुणों का स्मरण करके अपने भावोंको निर्मल करता है, मानों दोषोंके रोगोंको हटाने के लिए. औषधि पीता है। ऐसा करने से दोषरूपी रोग मिटते रहते हैं, बढ़ने नहीं पाते। और वह आगामी के लिए सावधान रहता है। वास्तव में यह प्रतिक्रमण एक तरह का स्नान है जो मन के मैल को व आत्मा के पापों को धो देता है ।
तत्वावधान
श्री पद्मनंदि सुनिने आलोचना पाठ में ऐसा ही कहा है-पापं कारितवान्यदत्रकृतवानन्यैः कृतं साध्विति । त्याऽहं प्रतिपन्नवांश्च मनसा वाचा व कायेन च ॥ काले संप्रति यच्च माविनि नवस्थानोद्गतं यत्पुनः । तन्मि व्याखिलमस्तु मे जिनपते ! स्वं नियतस्ते पुरः ॥७॥