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तत्वभावना
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मालिनी छन्द मरण जरा हिंसा पूरितं भव बनोमें। क्या दुःख न उठाए मोहक संगती । करके मन निश्चल यत्न ऐसा उचित कर । जो संग न आये स्वप्न में भी कलुषकर ॥१७॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि यद्यपि यह मानव देह महान अपवित्र है तथापि इससे अपना आत्मकल्याण कर लेना उचित है ।
दुर्गंधेन मलीमसेन ager स्वर्गापवर्गश्रियः । साध्यते सुखकारणा यदि तथा संपाते का क्षति: 1 निर्माल्येन विगर्हितेन सुखदं रत्नं यदि प्राप्यते । लाभः केन न मन्यते यत तवा लोकस्थिति जानता || १८ ||
अन्वयार्थ - ( यदि ) यदि ( दुर्गंधेन ) इस दुर्गंध से भरे हुए तथा ( मलीमसेन ) मलीन ( वपुषा ) शरीर से ( सुखकारिणाः) सुख को करने वाली (स्वर्गापवर्ग श्रियः ) स्वर्ग और मोक्ष की संपत्तियां ( साध्यते ) प्राप्त की जाती हैं ( तदा) तब ( का ) क्या ( क्षतिः) हानि ( संपद्यते ) होती है । (यदि ) यदि ( विगर्हितेन ) निंदनीय ( निर्माल्येन ) निर्माल्य के द्वारा (सुखदं रत्नं ) सुखदाई रत्न ( प्राप्यते ) मिल जावे ( तदा ) तब ( लोकस्थिति) जगतकी मर्यादा को ( जानता ) जाननेवाले ( केन) क्रिस पुरुषसे (लाभ:) लाभ ( न मन्यते ) न माना जाएगा ।
भावार्थ - यहां आचार्य बतलाते हैं कि यह शरीर परम अपवित्र दुर्गंधमय है- हांड़, चाम, मांस, रुधिर आदि का बना हुआ है। निरन्तर अपने करोड़ों रोमोंसे और मुख्य नव द्वारोंसे मैलको ही निकालता है, पवित्र जल चंदनादि पदार्थभी जिसकी