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________________ [ १८६ की शोभा करने में उसको पुष्ट करने में य उसको आराम देने में अपना समय व बल नष्ट किया करता है उसको मात्मोन्नति की तरफ ध्यान नहीं रहता है । उसका हृदय विषयभोगों में ऐसा अन्धा हो जाता है कि उसको कर्तव्य अकर्तव्यका व त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्यका विवेक नहीं रहता है। इसलिए जो अपने आत्माकी उन्नति करना चाहे उसको उचित है कि वे शरीर का मोह छोड़े उसका मादर न करें उसको चाकर के समान रखकर उससे तपादि का साधन करे और अपना कार्य बना लें | जो बुद्धिमान पुरुष होते हैं वे सदा इस बातकी सम्हाल रखते हैं । कायें करना निश्वय किरा गया है उसकी सफलता का ही उद्योग करे तथा उस कार्यके विरोधी किसी उद्यम को न करें । जब यह निश्चय है कि शरीर का मोह मन को आत्मकार्य से हटाने वाला है तो विवेकी को आत्मा के काम बनाने का ही ध्यान रखना चाहिए और इसलिए आत्म मनन करके स्वानुभव प्राप्त करना चाहिए, बिना आत्मध्यान के कभी भी आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकती है । तत्त्वभावना जब तक शरीर सम्बन्धी मोह नहीं छूटता तब तक आत्महित नहीं हो सकता। श्री अमितगति आचार्य सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं मवमदनकषायारातयो नोपशान्ता । न च विषय विमुक्ति अंन्मदुःखान्न भौतिः || न तनुमुखविरागो विद्यते यस्य जन्तो मंगति जगति दीक्षा तस्य मुक्त्यै न मुक्त्यै ॥ १७॥ भावार्थ --- जिस मानव के घमंड व कामभाव व क्रोधादि शत्रु शांत नहीं हैं व जिसका मन विषयों से विरक्त नहीं हुआ है व
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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