SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वभावना [२७५ द्रुतविलंबित छन्द बलवतो महिषाधिपवाहनो निरनिर्लिपपतीनपहंति यः । अपरमानववर्गविमर्दने भवति तस्य कदाचन न श्रमः ॥११० अन्वयार्थ-(:, (बलकाः दलन हलाधिपक्षाहनः) बड़े भैसोंकी सवारी करने वाला ऐसा यमराज (निरुनिलिपपतीन्) देवोंके स्वामियों को (अपहति) नाश कर देता है (सस्य) उस कालको (अपरमानववर्गविमर्दने) दूसरे मानवों के गर्वको खण्ठन करने में (कदाचन) कभी भी (धमः) मेहनत (न भवति) नहीं करनी पड़ती है। भावार्थ-इस श्लोक में यह बताया गया है कि यह मरण किसीको भी छोड़ता नहीं है । बड़े-२ बलवान देवोंके स्वामियों को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है तब अल्पायुधारी मानव के पशुओंकी तो बात ही क्या है। तात्पर्य यह है कि अपना मरण अवश्य एक दिन आने वाला है ऐसा समझ कर आत्महित के साधनमें रंचमात्र भी प्रमाद करने की जरूरत नहीं है । मरण से कोई बच नहीं सकता ऐसा अमितगति महाराज ने सुभाषित रत्नसंदोह में कहा है ये लोकेशशिरोमणिधुतिमलप्रक्षालिताप्रिया । लोकालोकविलोकिकेवललसस्साम्राज्यलक्ष्मीधराः॥ प्रक्षीणायुषि मान्ति तीर्थपतयस्तेऽप्यस्तदेहास्पर्व । तनान्यस्य कथं भवेत् मयमतः क्षीणायुषो जीवितम् ।।३०० भावार्य-जिन तीर्थंकरों के चरणों को इन्द्र चक्रवर्ती आदि लोकशिरोमणि पुरुष अपनी क्रांतिरूपी जलसे धोते हैं, जो लोक अलोकको देने वाले ऐसे केवल ज्ञानरूपी राज्यलक्ष्मी के घारी
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy