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तत्वभावना
बचता है। जनधर्म के सेवन का यही प्रयोजन है। यह धर्म सुखशांतिमय है तथा सुखशांति को देने वाला है। इस धर्म में वही देव पूजने योग्य है जो सर्वज्ञ, वीतराग व आनन्द-यी है। वहीं शास्त्र मानने योग्य है जिसमें सुखशांति पाने का उपाय यथार्थ बताया हो। वहीं गुरु वन्दने योग्य है जो आत्मज्ञानो, बैरागी व सुख शांति का भोगने वाला है। वही मनन व ध्यान कार्यकारी है जो सुख व शांति प्रदान करे। इसलिए साधक ने नीचे लिखे कार्यों में लगे रहने की भावना की है। (१) श्री अर्हत को भक्ति व पूजा व गुणों का स्मरण; क्योंकि यह भक्ति अवश्य परिणामों को शांत कर देती है। (२) जिनवाणी का पढ़ना; क्योंकि इससे अज्ञान और अशांति मिटती है। (३) दूसरों को निन्दा न करना; क्योंकि जिसकी आदत परनिन्दा की पड़ जाती है वह दूसरों के अवगुणों को ढूंढा करता है। उसका उपयोग अपनी उन्नति में दृढ़ नहीं होता है व वह स्वयं औगुण वाला हा जाता है। (४) धर्मात्माओं के गुणों का वर्णन; क्योंकि ऐसे गुणों के कथन से मन उन गुणों के लाभ में उत्साही हो जाता है । (५) चारित्र के लिए उत्साही होना व उद्यम करना; क्योंकि रागद्वेष के हटाने का उपाय मुनि व धावक का चारित्र पालना है। भीतरी चारित्र आत्मस्वरूप में लीनता है, उसका निमित्त साधक व्यवहार में महावत व अणुव्रत का पालन है। (६) क्रोधादि शत्रुओं को नाश करना । वास्तव में जितना इनका अभाव होगा उतना अपना आत्मा का स्वभाव प्रकाशमान होगा। (७) मात्म स्वरूप में लीनता या अनुभव; क्योंकि यही स्वात्मानुभव वास्तव में सुखशांति को साक्षात् देनेवाला है । जो मानव सच्चे दिल से इन सातों बातों को चाहता है, इनके साधनके लिए उपाय क्रिया