________________
तत्वभावना
अर्हक्तिपरायणस्य विशदं जनं वचोऽभ्यस्यतो। निजिह्वस्य परापवादवदने शक्तस्य सत्कीतने ।। चारित्रोद्यतचेतसः क्षपयतः कोपादिविद्वेषिणः । देवाध्यात्मसमाहितस्य सकलाः सार्यतु मे वासराः ॥२॥
अन्वयार्थ (देव) हे जिनेन्द्रदेव (मे; मेरे (सकलाः) सर्व (वासरा:) दिवम (अहंदभक्तिपरायणस्) अन्नको भक्ति को लीननामें (विशद) निर्मल (जैन चो) जिनवाणीके (अभ्य स्पन:) अभ्यास करने में, (परापवादवचने) दूसरों को निन्दा कहने में (निर्जिह्वस्य) जिह्वा रहित रहने में अर्थात् दूमों की निन्दा न करने में (सत्कीर्तने) संत तुरुषों के गुणों के वर्णन में (शक्तस्य) अपनी शक्ति लगाने में (चारित्रोद्यत्तचेतसः) चारित्र के लिए उद्यमी चित्त रखने में (कोपादिविद्वेषिणः) क्रोध आदि शत्रुओं को (क्षपयतः) क्षय करने में तथा (अध्यात्मसमाहितस्थ) आत्मा के भील र भले प्रकार लीन होने में (सयतु) बोते।
भावार्थ- यहां मोक्षार्थी सुख शांतिको चाहता हुआ व स्वाधीनता के मनोहर वन में रमने को उत्कंठा करता हुआ, सुख शांति व स्वाधीनता के निमित्त कार्यों में नित्य लगे रहने की भावना करता है । साधक शिष्य का प्रयोजन अपने भावों में से क्रोधादि कषायों के मन को कम करके शांति, क्षमा, वरार,
आत्ममनन, आत्मानुभव आदि शुभ तथा शुद्ध भावों को प्राप्त करना है। इस मतलब को ध्यान में लेकर जिन को संगति करने से व जिस क्रिया के करने से वह मतलब मिड हो उसमें अपने मन को जोड़ता है। और जिनकी संगति से व जिस क्रिया से क्रोधादि कपान चढ़े व संसार से मोह अधिक हो आबे उनसे