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________________ तत्त्वभावना। ___ [ २६५ लोके भूरिकषायदोषमलिमे ते सज्जना बुलंमाः। ये कुर्वन्ति तवयंमुत्तमधियस्तेषां किमनोच्यते ॥१०॥ अन्वयार्थ-(भूरिकषायदोषमलिने लोके) तीव्र कषायों के दोष से मलीन ऐसे इस जगत में (ये सज्जना:)जो सज्जन (विमुस्तिधिये) मोक्षरूपी लक्ष्मीके मिलाने के लिए(दूतों)दूतीके समान (च)और लोकोत्तरता)लोक से तरने का मार्ग बताने वाली तथा (दर्शनपरां)सम्यग्दर्शन को दिखाने वाली (अनुपमा) व जिसकी उपमा जगत में नहीं हो सकती है ऐसी (जिन भारतीम् ) जिनवाणी को (जलपंति) पढ़ते हैं (शृण्वंलि)सुनते हैं(च रोचते) और उस पर रुचि लाते हैं (ते दुर्लभा:) वे कठिन हैं तब (ये) जो (तदर्थम्)उस मुक्तिके लिए(उत्तमधियः)उत्तम ज्ञानका (कुर्धति) -साधन करते हैं (अत्र) यहाँ (तेषां कि उच्यते) उनके लिए क्या कहा जावे ? भावार्थ-यहाँ आचार्य ने बताया है कि यह संसारो जन कोष, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से मलीन हो रहे हैं। रात-दिन इन्द्रिय विषयको लोलुपता में फंसे हैं । स्त्री पुत्र आदि में मोही हो रहे हैं ऐसे जगत में जिनवाणी को प्रेमसे पढ़नेवाले सुननेवाले तथा उस पर रुचि लाने वाले बहुत कम हैं, यहां तक कि दुर्लभ हैं । यह जिनवाणी सच्चा मुक्तिका मार्ग दिखाती है, रत्नत्रय में सबसे मुख्य सम्यग्दर्शन है उसको प्राप्त करती है, जिसके अभ्यास से दूध पानी की तरह मिले हुए जीव अजीव पदार्थ भिन्न-२ दिखलाई पड़ जाते हैं। इस जिनवाणी की उपमा इसलिए नहीं हो सकती है कि इसमें अनेकान्तरूप पदार्थों का जैसा स्वरूप है वैसा दिखाया है। स्याद्वादनय से वस्तु के स्वरूप
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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